सूफीवाद
Sufivad
पद सूफी, वली, दरवेश और फकीर का उपयोग मुस्लिम संतों के लिए किया जाता है, जिन्होंने अपनी पूर्वाभासी शक्तियों के विकास हेतु वैराग्य अपनाकर, सम्पूर्णता की ओर जाकर, त्याग और आत्म अस्वीकार के माध्यम से प्रयास किया। बारहवीं शताब्दी ए.डी. तक, सूफीवाद इस्लामी सामाजिक जीवन के एक सार्वभौमिक पक्ष का प्रतीक बन गया, क्योंकि यह पूरे इस्लामिक समुदाय में अपना प्रभाव विस्तारित कर चुका था।
सूफीवाद इस्लाम धर्म के अंदरुनी या गूढ़ पक्ष को या मुस्लिम धर्म के रहस्यमयी आयाम का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि, सूफी संतों ने सभी धार्मिक और सामुदायिक भेदभावों से आगे बढ़कर विशाल पर मानवता के हित को प्रोत्साहन देने के लिए कार्य किया। सूफी सन्त दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग था जो अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए उल्लेखनीय रहा। सूफियों ने ईश्वर को सर्वोच्च सुंदर माना है और ऐसा माना जाता है कि सभी को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए, उसकी याद में खुशी महसूस करनी चाहिए और केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने विश्वास किया कि ईश्वर ”माशूक” और सूफी ”आशिक” हैं।
सूफीवाद ने स्वयं को विभिन्न ‘सिलसिलों’ या क्रमों में बांटा। सर्वाधिक चार लोकप्रिय वर्ग हैं चिश्ती, सुहारावार्डिस, कादिरियाह और नक्शबंदी।
सूफीवाद ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जडें जमा लीं और जन समूह पर गहरा सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रभाव डाला। इसने हर प्रकार के धार्मिक औपचारिक वाद, रुढिवादिता, आडंबर और पाखंड के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा एक ऐसे वैश्विक वर्ग के स़ृजन का प्रयास किया जहां आध्यात्मिक पवित्रता ही एकमात्र और अंतिम लक्ष्य है। एक ऐसे समय जब राजनैतिक शक्ति का संघर्ष पागलपन के रूप में प्रचलित था, सूफी संतों ने लोगों को नैतिक बाध्यता का पाठ पढ़ाया। संघर्ष और तनाव से टूटी दुनिया के लिए उन्होंने शांति और सौहार्द लाने का प्रयास किया। सूफीवाद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने अपनी प्रेम की भावना को विकसित कर हिन्दू – मुस्लिम पूर्वाग्रहों के भेद मिटाने में सहायता दी और इन दोनों धार्मिक समुदायों के बीच भाईचारे की भावना उपत्न्न की।