चल रही उसकी कुदाली – शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
Chal Rahi Uski Kudali –Shivmangal Singh ‘Suman’
हाथ हैं दोनों सधे-से
गीत प्राणों के रूँधे-से
और उसकी मूठ में, विश्वास जीवन के बँधे-से
धकधकाती धरणि थर-थर
उगलता अंगार अम्बर भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा
खड़ा वह आज तनकर शून्य-सा मन, चूर है तन
पर न जाता वार खाली चल
रही उसकी कुदाली
वह सुखाता खून पर-हित
वाह रे साहस अपिरिमत
युगयुगों से वह खड़ा है
विश्व-वैभव से अपिरिचत
जल रहा संसार धू-धू
कर रहा वह वार कह हूँ
साथ में समवेदना के
स्वेद-कण पड़ते कभी चू
कौन-सा लालच? धरा की
शुष्क छाती फाड़ डाल चल रही
उसकी कुदाली लहलहाते दूर तरू-गण
ले रहे आश्रय पथिक जन
सभ्य शिष्ट समाज खस की
मधुरिमा में हैं मगन मन सब सरसता रख
किनारे भीम श्याम शरीर धारे
खोदता तिल-तिल धरा वह
किस शुभाशा के सहारे?
किस सुवर्ण् भविष्य के हित
यह जवानी बेच डाली?
चल रही उसकी कुदाली
शांत सुस्थिर हो गया वह
क्या स्वयं में खो गया वह
हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक
एकटक-सा रह गया वह आ रही
वह खोल झोंटा एक पुटली, एक लोटा
थूँक सुरती पोंछ डाला शीघ्र अपना होंठ मोठा
एक क्षण पिचके कपोलों में गई कुछ दौड़ लाली
चल रही उसकी कुदाली
बैठ जा तू क्यों खड़ी है
क्यों नज़र तेरी गड़ी है
आह सुखिया, आज की रोटी
बनी मीठी बड़ी है
क्या मिलाया सत्य कह री?
बोल क्या हो गई बहरी?
देखना, भगवान चाहेगा
उगेगी खूब जुन्हरी फिर मिला हम नोन-मिरची
भर सकेंगे पेट खाली चल रही
उसकी कुदाली आँख उसने भी उठाई
कुछ तनी, कुछ मुसकराई
रो रहा होगा लखनवा भूख से, कह बड़बड़ाई
हँस दिया दे एक हूँठा थी
बनावट, था न रूठा
याद आई काम की, पकड़ा
कुदाली, काष्ठ-मूठा
खप्प-खप चलने लगी
चिर-संगिनी की होड़ वाली चल रही उसकी कुदाली
भूमि से रण ठन गया है
वक्ष उसका तन गया है
सोचता मैं, देव अथवा
यन्त्र मानव बन गया है
शक्ति पर सोचो ज़रा तो
खोदता सारी धरा जो
बाहुबल से कर रहा है
इस धरणि को उवर्रा जो
लाल आँखें, खून पानी
यह प्रलय की ही निशानी
नेत्र अपना तीसरा क्या
खोलने की आज ठानी
क्या गया वह जान
शोषक-वर्ग की करतूत काली
चल रही उसकी कुदाली