पानीपत का तृतीय युद्ध
Panipat III War
पानीपत की तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। लड़ाई भारतीय इतिहास की बेहद महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी बदलावों वाली साबित हुई। अहमद शाह अब्दाली ने मराठों को पराजित किया और इससे भारत में मराठा शक्ति क्षीण हो गयी।
पानीपत के तीसरा युद्ध दरअसल 18वीं शताब्दी के मध्य में मराठों और अफगानों के बीच चल रहे युद्धों की श्रंखला का अंतिम और निर्णायक युद्ध था। 10 जनवरी 1760 को अहमद शाह अब्दाली ने मराठा सेनापति दत्ताजी की हत्या कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। मराठों की यह हार ही इस युद्ध का कारण बनी।
इस हार का समाचार सुनकर पेशवा बालाजीराव ने अब्दाली की शक्ति नष्ट करने के लिए अपने चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। इस सेना ने 2 अगस्त 1760 को दिल्ली को अब्दाली के कब्जे से आजाद करा लिया। अब्दाली इस हार से तिलमिला उठा लेकिन वह यमुना पार करने में सक्षम ना था, इसलिए हार स्वीकार करने के लिए विवश हो गया। हालांकि यह विजय मराठों के लिए शुभ सबित नहीं हुई।जीत के तुरंत बाद भरतपुर के राजा सूरजमल ने मराठों का साथ छोड़ दिया। अवध का नवाब शुजाउद्दौला 18 जुलाई, 1760 को ही अब्दाली से जा मिला था। दिल्ली फतह करने के ढाई माह बाद तक मराठे वहां से निकल नहीं पाए। वहां धन और खाद्यसामग्री की कमी पड़ गई। धनाभाव के कारण दिल्ली में ठहरना संभव नहीं था।
इसलिए वे कुंजपुरा की चौकी ओर बढ़े और 17 अक्टूबर को यहां अधिकार कर लिया। दिल्ली के बाद कुंजपुरा के हाथ से निकल जाने से अब्दाली उत्तेजित हो उठा। कुंजपुरा पर उसने दोबारा हमला किया और इसे जीतने में सफल रहा। पानीपत और उसके आसपास के इलाके में उस दौर में भयंकर अकाल पड़ा। मराठे भयानक भूख और धन की कमी से परेशान हो उठे। बदतर होते हालात के बीच उन्होंने अब्दाली से बातचीत की पहल की। लेकिन रूहेला सरदार नजीब के कारण वार्ता असफल रही। अंतत: मराठों को 14 जनवरी, 1761 का पानीपत का युद्ध करना पड़ा।
इस युद्ध में दोनों तरफ के सैन्य बल में कोई खास अन्तर नहीं था। दोनों तरफ विशाल सेना और आधुनिकतम हथियार थे। इतिहासकारों के अनुसार सदाशिवराव भाऊ की सेना में 15,000 पैदल सैनिक व 55,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उसके पास 200 तोपें भी थीं। इसके अलावा उसके सहयोगी योद्धा इब्राहिम गर्दी की सैन्य टूकड़ी में 9,000 पैदल सैनिक और 2,000 कुशल अश्वारोहियों के साथ 40 हल्की तोपें भी थीं। जबकि दूसरी तरफ, अहमदशाह अब्दाली की सेना में कुल 38,000 पैदल सैनिक और 42,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उनके पास 80 बड़ी तोपें थीं। इसके अलावा अब्दाली की आरक्षित सैन्य टूकड़ी में 24 सैनिक दस्ते (प्रत्येक में 1200 सैनिक), 10,000 पैदल बंदूकधारी सैनिक और 2,000 ऊँट सवार सैनिक शामिल थे। इस प्रकार दोनों तरफ भारी सैन्य बल पानीपत की तीसरी लड़ाई में आमने-सामने आ खड़ा हुआ था। कुछ इतिहासकार मानते है कि मराठे अश्वसेना और तोपखाने की दृष्टि से बेहतर थे, जबकी अब्दाली की पैदल सेना बेहतर थी। दोनों सेनाओं के बीच 14 जनवरी, 1761 को सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक चला। इसमें 2 बजे तक मराठों का पलड़ा भारी रहा क्योंकि इब्राहीम खान गार्दी के तोपखाने ने शत्रु शिविर में तहलका मचा दिया था। उसी समय पेशवा के पुत्र विश्वास राव को गोली लग गई। वह मौके पर ही शहीद हो गए। विश्वासराव को मरते देख भाऊ पागल हो उठे। वह हाथी से उतरे और घोड़े पर बैठकर अब्दाली की सेना में घुस गए। ऐसी स्थिमि में उन्हें शहीद ही होना था और वही हुआ। मराठा सेना में इस घटना से भगदड़ मच गई और वह हार गई। अब्दाली ने अपने कुशल नेतृत्व व रणकौशल की बदौलत इस जंग को जीत लिया। इस युद्ध में अब्दाली की जीत के साथ ही मराठों का एक अध्याय समाप्त हो गया। इसके साथ ही जहां मराठा युग का अंत हुआ, वहीं, दूसरे युग की शुरूआत के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व भी स्थापित हो गया। इसी के साथ भारतीय इतिहास के भारतीय युग का अंत हो गया।