Hindi Essay “Dr. Mokshagundam Visvesvaraya”, “डॉ मोक्षमुंडम विश्वेश्वरैया” Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and other Classes Exams.

डॉ मोक्षमुंडम विश्वेश्वरैया

Dr. Mokshagundam Visvesvaraya

भारत को गौरवशाली बनाने में हमारे वैज्ञानिकों का विशेष योगदान है। भारत के अनेक वैज्ञानिकों ने हमारे जीवन को सुगम और सरल बनाया है। उनके द्वारा किये गये आविष्कारों से हम सब का जीवन पहले से बेहतर हुआ है और कार्य-प्रणाली अधिक आसान हुई है।

ऐसे ही एक वंदनीय वैज्ञानिक एवं श्रेष्ठ अभियंता, आधुनिक भारत के विश्वकर्मा, भारतीय विकास के जनक डॉ. मोक्षमुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितंबर 1861 कर्नाटक के कोलार जिले में हुआ था, जो सोने की खानों के लिए प्रसिद्ध है। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री था, जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान माने जाते थे। उनकी माता का नाम वेकम्चम्मा था। माता-पिता दोनो ही धर्मपरायण थे। बाल्यकाल से ही तीव्र बुद्धि के स्वामी विश्वेश्वरैया के मन में देश की परंपरा और सभ्यता का आदर था। गरीबी के कारण उन्होने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गॉव में ही प्राप्त की। परिश्रमी तथा मेघावी विश्वेश्वरैया हाईस्कूल की पढाई के लिए बंगलौर आए और सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। इस दौरान उन्होने बङी कठिनाईयों का सामना किया। 19 वर्ष की उम्र में उन्होने 1881 में बी.ए. की परिक्षा पास कर ली थी। धन की कमी के कारण उनका दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त था, वे रहते कहीं थे तो सोते कहीं थे। छोटे बच्चों को पढाकर किसी तरह अपना गुजारा कर लेते थे।

जब उन्होने बी.ए. में प्रथम श्रेणीं हासिल की तो मैसूर सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिलने लगी। जिससे उनकी आर्थिक स्थिती थोङी ठीक हो गई और वे पूना स्थित साइंस कॉलेज में पढने गये। वहाँ उन्होने यंत्रशास्त्र का अच्छा अध्ययन किया और 1883 में एल.सी.आई. और एफ.सी.आई. की परिक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। ये परिक्षाएं आज की बी.ई. परीक्षाओं के समकक्ष मानी जाती हैं। परिक्षाफल घोषित होते ही उनकी धूम मच गई। और तत्कालीन बंबई सरकार ने उन्हे सहायक अभियंता के रूप में नियुक्त कर दिया। उनकी पहली नियुक्ति नासिक में हुई, जहाँ उन्होने अपनी लगन, परिश्रम और ईमानदारी से अपने कार्यो को किया जिससे उनकी ख्याति बढने लगी। बङे-बङे अंग्रेज अभियंता उनका लोहा मानने लगे। उनकी पदोन्नति भी होती चली गई और उन्हे आधुनिक तरीके से जल-आपूर्ती का काम सौंपा गया।

बङे नगरों में जल कहाँ से लाया जाए कहाँ एकत्रित किया जाए और किस तरह वितरित किया जाए ये उस समय चुनौती पूर्ण कार्य था। सिंध उस समय बंबई प्रान्त का हिस्सा था। उसका एक बङा हिस्सा रेगिस्तान था और पानी की भारी समस्या थी। 32 वर्षिय विश्वेश्वरैया को इस व्यवस्था का दायित्व सौंपा गया। उन्होने 1894 में शख्खर बाँध का निर्माण करके पूरे सिंध के लिए जल की व्यवस्था कर दी। किसानों के लिए सिंचाई करने हेतु जल की व्यवस्था करना और पानी को व्यर्थ न बहने देने के लिए विश्वेश्वरैया जी ने नई ब्लॉक पद्धति तैयार की और इस्पात के दरवाजों के जरिये पानी के व्यर्थ बहाव को रोका। इस कार्य हेतु उनकी अत्यधिक प्रशंसा हुई। अब उन्हे बैंगलोर , पूना, मैसूर, करांची, बङौदा, ग्वालियर, इंदौर और कोल्हापुर, सांगली, सूरत, नासिक, नागपुर, धारवाण आदि नगरों की जल-कल की व्यवस्था का दायित्व मिला, जिसे उन्होने बङी कुशलता और निष्ठा से पूरा किया। हर जगह उन्होने वाटरर्वक्स और पानी निकास के लिए नालियों का निर्माण करवाया।

तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने विश्वेश्वरैया जी को जो भी दायित्व सौंपा वे उसे सफलता पूर्वक पूरा करते रहे। उनकी कीर्ति का परचम भारत के बाहर भी लहराने लगा।

उस समय अदन बंदरगाह अत्यन्त महत्वपूर्ण था। लाल सागर में प्रवेश करने के लिए यहाँ से गुजरना पङता था। इस बंदरगाह के चारो ओर रेगिस्तान था, पेयजल के लिए समुंद्री जल का आसवन करना पङता था। डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की नियुक्ति वहाँ के जल व्यवस्था के लिए की गई। उन्होने वर्षा जल को एकत्र करके जलपूर्ती का एक और साधन विकसित किय़ा।

जब कोल्हापुर के पास झील पर बना बाँध क्षतिग्रस्त हो गया तो शहर के डूबने का खतरा हो गया था। उन्होने एक अनोखी योजना बनाकर मरम्मत कार्य पूरा करा दिया और शहर बच गया।

विश्वेश्वरैया ने अनेक नदियों को बाँधा, उनके किनारों पर सुन्दर पार्क बनवाए। तमाम इमारतें, सङकें एवं पुल बनवाए। उनकी तीव्र गति से पदोन्नति होती गई। एक ओर प्रशंसा एंव सराहना करने वालों की बङी तादाद थी तो दूसरी ओर उनसे ईर्ष्या करने वालों की भी कमी न थी। ऐसे विपरीत मानसिकता वाले लोगों ने कई बार उनके कामों में बाधा पहुँचाई। ऐसे लोगों से त्रस्त हो कर विश्वेश्वरैया ने त्यागपत्र दे दिया और 1908 में मात्र 47 वर्ष की आयु में नौकरी छोङकर विदेश चले गये।

भारत सरकार उन्हे पेंशन दे रही थी। तभी उन्हे हैदराबाद के निजाम से तार मिला, जिसमें हैदराबाद स्थित मूसा नदी में आई बाढ़ से शहर को बचाने का अनुरोध किया गया था।

देशप्रेमी विश्वेश्वरैया भारत लौट आए, उन्होने न सिर्फ तात्कालीन समस्या का समाधान किया वरन् आगे के लिए भी सुरक्षा प्रबंध पूरे कर दिये। नगर के लिए जल एवं नालियों की व्यवस्था की गई। हैदराबाद का कार्य पूरा होते ही मैसूर राज्य के राजा कृष्णराव वाडीयार ने उन्हे 1909 में मैसूर आमंत्रित किया और राज्य का मुख्य अभियंता नियुक्त किया। मात्र तीन वर्ष बाद उन्हे राज्य का दीवान बना दिया गया।

अपने कार्यकाल में विश्वेश्वरैया जी ने मैसूर राज्य में अनेक सुधार किये। कावेरी नदी पर बने बाँध से किसानों को सिंचाई के लिए पानी मिला और उद्योग धन्धों को बिजली। उस समय देश के लिए पनबिजली एक नई चीज थी। इस कार्य के दौरान अनेक बाधाँए आईं किन्तु वे रास्ते से डिगे नही। बाँध निर्माण के दौरान जोरों की बारिश हुई गाँव के गाँव पानी से भर गये, मजदूर काम छोङकर भाग गये महाराजा मैसूर ने भी कहा कि काम रोक दो। परन्तु विश्वेश्वरैया जी नही माने बाँध पर ही तम्बु बँधवाकर 24 घंटे काम देखते रहे इस तरह बाँध तैयार हो गया।

दीवान के रूप में वे सुबह 7 बजे से शाम 8 बजे तक काम करते थे। वे निर्धारित समय में लोगों से मिलते थे। वे कर्मचारियों को गाँव की स्थिती जानने के लिए भेजते थे। वे स्वंय भी गाँव-गाँव जाया करते थे और खेती के लिए पानी तथा वहाँ के लोगों के लिए अस्पताल, स्कूलों की व्यवस्थता करवाते थे। वे शिक्षा को बहुत महत्व देते थे। जब वे दीवान बने थे तो राज्य में लगभग 4500 स्कूल थे। 6 वर्षों के कार्यकाल में 6500 नये स्कूल खोले गये। स्कूल जाने वाले विद्यार्थीयों की तादाद 1,40,000 से बढकर 3,66,000 हो गई थी। उन्होने लङकियों के लिए पहला डिग्री कॉलेज स्थापित कराया और उनके रहने के लिए हॉस्टल भी बनवाए। विश्वेश्वरैया जी के प्रयासों से मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उस समय किसी भारतीय रियासत में ये पहला विश्वविद्यालय था। बेरोजगारी से निजात दिलाने के लिए उन्होने कृषी कॉलेज, इंजिनीयरिगं कॉलेज तथा हर जिले में औद्योगिक स्कूल खुलवाए । अनेक उद्योग धन्धे जैसे सीमेन्ट, कागज, इस्पात के कारखाने खोले तथा बैंक भी स्थापित करवाए।

उन दिनों यूरोपियों को ज्यादा सम्मान देने की प्रथा थी। जब मैसूर में दशहरा होता तो यूरोपिय दर्शकों को बङी आराम दायक कुर्सियां मिलती और ज्यादातर भारतियों को फर्श पर बैठना पङता था। दीवान विश्वेश्वरैया जी ने सभी के लिए एक जैसी कुर्सियों का इंतजाम करवाया। राष्ट्रवादी विश्वेश्वरैया जी सीधे आन्दोलन में तो नही कूदे किन्तु समय-समय पर अंग्रेजों को नीचा दिखाकर एवं भारतीयों को सम्मान दिलाकर अप्रत्यक्ष योगदान जरूर दिये। इस कारण उन्हे अनेक बार अंग्रेजों द्वारा कठिनाइयों का सामना भी करना पङता था।

1918 में उन्होने दीवान के पद से अवकाश ग्रहंण किया। वे विदेश चले गये और नई-नई जानकारी हासिल करते रहे कि किस प्रकार विदेशों में औद्योगिक उन्नति हो रही है। दो वर्ष बाद जब वे लौटकर आए तो भारत में शाशन कर रही ब्रिटिश सरकार ने उन्हे निर्माण संबन्धि अनेक समीतियों का अध्यक्ष नियुक्त किया। एक ओर उन्हे दिल्ली की दशा सुधारने तथा उसके विकास के लिए दिल्ली राजधानी का सदस्य नियुक्त किया गया और दूसरी ओर मैसूर राज्य में भद्रावति कारखाने को सुधारने का दायित्व दिया गया। विश्वेश्वरैया उद्योगों की स्थिती सुधारने के लिए सदैव तैयार रहते थे। रेशम उद्योग के सुधार हेतु उन्होने इटली और जापान से विशेषज्ञ बुलवाए। अनेक भारतीय इंजीनियरों को विदेश से प्रशिक्षण दिलवाया।

सेवा निवृत्ती के बाद विश्वेश्वरैया ने ज्यादा सफलताएं हासिल कीं। जहाँ एक ओर दिल्ली को नया रूप दिया वहीं उङीसा में नदियों को बाँधकर नियंत्रित किया। उनके मार्गदर्शन में दिल्ली करांची बङौदा, सांगली, भोपाल, पण्ढरपुर, अहमदनगर, नागपुर, राजकोट आदि के नगर निगम तथा नगरपालिकाएं सुचारू रूप से कार्य करने लगीं।

विकास के लिए योजना की आवश्यकता होती है। महत्वपूर्ण आवश्यकताएं उनका क्रम, धन राशी की आवश्यकता एवं उनका स्रोत विशेषज्ञ, कामगारों की संख्या और उनकी पूर्ती आदि की योजना बनाने में विश्वेश्वरैया अत्यन्त निपुण थे। नियोजन पर लिखी उनकी पुस्तक 1934 में प्रकाशित हई, इसके पूर्व भारत का पुनः निर्माण नामक पुस्तक 1920 में लिख चुके थे।

डॉ. विश्वेश्वरैया काम के साथ-साथ लेखन भी करते थे और ये क्रम उनके 98वें वर्ष में भी जारी रहा। जब भद्रावती का इस्पात कारखाना सफल हुआ तो, टाटा उनसे बहुत प्रभावित हुए। उन्होने उन्हे जमशेदपुर स्थित इस्पात कारखाने का निदेशक नियुक्त किया और यहाँ डॉ. विश्वेश्वरैया 1955 तक काम करते रहे।

उनकी स्मरण शक्ति गजब की थी। वे लगातार पढते थे और समस्या आने पर उन्हे ज्ञात रहता था कि, कौन सा हल किस किताब के किस पन्ने पर लिखा है ये उन्हे याद रहता था। वे समय के बहुत पाबंद थे और अपने सह कर्मियों से भी समय से काम करने की अपेक्षा रखते थे, देर होने पर वे उन्हे टोक देते थे। वे कभी भी पक्षपात नही करते थे। जब वे दीवान थे तो उनके एक रिश्तेदार ने अधिक सुविधा और 50 रूपये अधिक वाला पद माँगा। विश्वेश्वरैया ने उन्हे इंकार कर दिया किन्तु अपनी तरफ से वे उन्हे 100 रूपये महावार देते रहे।

वे अत्यन्त सुरूचीपूर्ण, चुस्त -दुरुस्त पोशाक पहनते थे और उनकी ये आदत 95वें वर्ष तक जारी रही। वे अक्सर तैयारी के साथ भांषण देते थे। वे स्वंय लिखकर टाइप भी करा लेते थे। वे कभी भी आनावश्यक और अनुचित बात नही बोलते थे।

आयु के साथ-साथ उनका काम भी बढता गया 1952 की बात है, विश्वेश्वरैया 92 वर्ष के हो चुके थे। बिहार में गंगा नदी पर पुल बनाने की योजना बन रही थी, गर्मीयों के दिन थे। विश्वेश्वरैया को इंजीनियरों के दल के साथ निर्माण स्थल तक जाना था। कार का रास्ता नही था तो सरकार ने उनकी सुविधा के लिए पालकी की व्यवस्था की किन्तु वे कार से उतर कर इंजीनियरों के साथ पैदल ही चले गये। वे राजकीय अतिथी गृह में रुकने के बजाय रेलवे कोच में ही रुक कर अपना काम कर लेते थे। जब वे मैसूर के दीवान थे तो सिर्फ राजकीय कामों के लिए ही राजकीय कारों का इस्तेमाल करते थे। शेष कार्यों के लिए वे अपनी कार का उपयोग करते थे। जब वे इस्तिफा देने गये तो राजकीय गाङी से गये और वापस अपनी गाङी से लौटे।

उनकी कार्यक्षमता से अंग्रेज भी जलते थे। उनकी योजनाओं का वे यदा-कदा मजाक भी बनाते थे। परन्तु विश्वेश्वरैया के कार्यो ने सभी की बोलती बंद कर दी।

जीवन काल में विश्वेश्वरैया को अनेक सम्मान से सम्मानित किया गया। 1930 में बंबई विश्वविद्यालय ने उन्हे डॉक्टरेट की उपाधी से सम्मानित किया इसके बाद लगभग एक दर्जन विश्वविद्यालयों ने उन्हे अनेक उपाधियों से विभूषित किया।अंग्रेज सरकार ने भी उन्हे ‘सर’ का खिताब प्रदान किया। आजादी के बाद भारत सरकार ने उन्हे ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया। इस अवसर पर वे राष्ट्रपति भवन गये और नियमानुसार तीन दिन वहाँ ठहरे, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने उनसे और ठहरने का आग्रह किया किन्तु नियम के पक्के विश्वेश्वरैया को और काम भी करने थे इससे वे रुके नही। विश्वेश्वरैया संयम जीवन व्यतीत करते थे।

अनुशासन प्रिय डॉ विश्वेश्वरैया ने काम करते समय उम्र को बहुत पीछे छोङ दिया 85 वर्ष की आयु में वे एक नई मशीन को जाँचने के लिए लोहे की सीढी पर चढ गये थे। वे नियम से सैर तथा कसरत करते थे और गुस्से से दूर रहते थे अपनी योग्यता से अंग्रेजों को झुका देने वाले विश्वेश्वरैया अमेरीकी और जापानी लोगों की मेहनत से बहुत प्रभावित थे। वे स्वंय भी एक मिनट भी बरबाद नही करते थे।

विश्वेश्वरैया को ईश्वर ने स्वस्थ और सक्रिय लम्बी आयु प्रदान की थी। अपने सौ वें जन्मदिन पर भी वे स्वस्थ थे। वे अंतिम समय तक अपने कृतित्व से लोगों को संदेश देते रहे। उन्होने छात्रों को ज्ञान तथा प्रकाश दिया। गरीबों को आगे बढने की प्रेरणा दी, सरकारी नौकरी करने वालों, समाज सेवियों एवं देशभक्तो के लिए मिसाल कायम की। एक बार उन्होने कहा था, “याद रखिये यदि आपका काम प्लेटफार्म पर सिर्फ झाड़ू लगाना है, तो भी आप मिसाल कायम कर सकते हैं। आप अपने प्लेटफार्म को इतना स्वच्छ रखें जितना संसार में दूसरा न रख सकें”।

भारत को विकासशील बनाकर भारत माता का ये सपूत 14 अप्रैल 1962 को बंगलौर में इहलोक त्यागकर परलोक सिधार गया। पूरे देश में जगह-जगह उन्हे श्रद्धांजली दी गई। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने श्रद्धांजली अर्पित करते हुए कहा, “आज ऐसा महान व्यक्ति चल बसा जिसने हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं में योगदान किया है।“

पानी की धारा को बस में करने वाले महान वैज्ञानिक विश्वेश्वरैया के जन्मदिन को अभियन्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। 101 वर्ष की आयु में भी काम करने वाले विश्वेश्वरैया का कहना था कि, “जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।” ऐसे सम्मानित व्यक्ति सदैव अमर रहते हैं।

 

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