ग्रामीण युवा
Gramin Yuva
एक शाम को मैं अपने ग्राम मानीकोठी, जनपद औरैया के किनारे बहने वाली छोटी नहर की पुलिया पर बैठा अन्य ग्रामवासियों से बातचीत कर रहा था। इस पुलिया पर से ग्राम की लिंक रोड पास होती है। तभी लिंक रोड से आकर एक मोटरसायकिल पुलिया से गुज़र गई। उस पर एक किशोर सवार था। फिर कुछ देर बाद हर दस पांच मिनट पर मोटरसायकिल पास होने लगी जिन पर प्राय: नवयुवक सवार होते थे। इनमें से अधिकतर बांयें हाथ में मोबाइल पकड़े गर्दन बाईं ओर झुकाये हुए किसी से बातचीत में व्यस्त होते थे। चूंकि मेरे गांव और उसके आस पास के गांवों में काफी ग़रीबी है, इसलिये इतनी मोटरसायकिलें और मोबाइल देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा था। अत: मैने अपने बगल में बैठे अपने भाईसाहब से पूछा कि अब तो गांवों में बड़ी सम्पन्न्ता आ गई प्रतीत होती है। भाईसाहब ने विद्रूप भाव से हंसकर कहा,”ये जो छ: छ: पौकिट वाली जीन्स पहिनकर मोबाइल पर बात करते हुए जा रहे हैं, इनमें से कइयों के घरों में शाम का चूल्हा नहीं जलेगा।” मेरे आश्चर्यपूर्वक उनकी ओर देखने पर वह आगे बोले, ”मोटरसायकिल और मोबाइल तो इनके जुनून हैं जिन्हें पूरा करने के लिये ये लड़के मां बाप को डरा घमकाकर उनसे पैसा हथिया लेते हैं और कभी कभी खेती बाडी भी गिरवी रखा लेते हैं। घर में एक ही वक्त का खाना बने इससे इन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अनेक फाइनेंस कम्पनियां और गांव के धनी लोग भी ऋण देकर इन्हें फंसाने में लगीं रहतीं हैं।”
फिर वहां बैठे गांव के तमाम लोग इस चर्चा में स्वत: शामिल हो गये। उन्होने बताया कि ग्रामीण युवा में कुछ को छोड़कर अधिकतर का विश्वास है कि पढ़लिखकर नौकरी प्राप्त कर लेना असम्भव है और फर्ज़ी डिग्री, सिफ़ारिश और रिश्वत ही नौकरी पाने के एकमात्र उपाय हैं। उनके इस विश्वास के कुछ ठोस कारण भी हैं, जैसे- एक नेता ने अपने चुनावी भाषणों में यह घोषणा की थी कि किसी छात्र को पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है, वे उसे चुनाव में जितायें और शासन में आने पर नौकरी तो वह उन्हें दिला ही देगा। फिर शासक बनने के बाद उन नेता जी ने इंटर-कालेज के प्रबंधकों से खूब धन इकट्ठा कर उन कालेजों को स्थानीय छात्रों की परीक्षा हेतु स्वकेंद्र बनवा दिया। उनमें जमकर नकल हुई, जिससे हाई स्कूल व इंटरमीडियेट परीक्षा के परिणाम में विगत वर्षों की अपेक्षा लगभग 40 प्रतिशत अधिक छात्र उत्तीर्ण हो गये। फिर इनमें से अनेक से धनउगाही कर उन्हें सिपाही, चपरासी जैसी नौकरियां भी दिला दीं। अत: ग्रामीण छात्रों में केवल इक्के दुक्के ही यह सोचकर पढ़ाई करते हैं कि अच्छा पढ़कर उन्हें कुछ बनना है।
ग्रामों में जन्में युवाओं को सामान्यत: निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
उनमें लगभग 10 प्रतिशत ऐसे हैं जो सौभाग्यवश किसी साधन या रिश्तेदारी के कारण शहर में पढ़ने चले जाते हैं और अपनी प्रतिभानुसार प्रगति करते हैं। दूसरे वे 10 प्रतिशत हैं जो स्वाभाविक रूप से इतने प्रतिभावान एवं लगनशील हैं कि ग्रामीण विद्यालयों में पढ़ाई न करने के हर आर्कषण के बावजूद पढ़ते हैं और जीवन में प्रगति कर जाते हैं। तीसरे वे 30 प्रतिशत हैं जो कोशिश, सिफ़ारिश, रिश्वत, जातिवाद आदि का लाभ उठाकर शहरों में नौकरी पा जाते हैं। चौथे 20 प्रतिशत वे हैं जो गाज़ियाबाद , नोइडा, दिल्ली आदि भाग जाते हैं और वहां मज़दूरी, चोरी, तस्करी या छोटा मोटा व्यापार कर जीवनयापन करते हैं। पाचवें 20 प्रतिशत गांव में ही रह जाते हैं और गांव में ग़रीबों को मिलने वाले अनुदान में से कमीशनखेरी, ठेकेदारी, नेतागीरी या गुंडागर्दी में लिप्त हो जाते हैं। शेष दस प्रतिशत यह भी नहीं कर पाते हैं परंतु मोबाइल और मोबाइक रखने का न सही तो कम से कम गुटखा खाने, अद्धा पीने ओर जुआ खेलने के शौक उनके भी कम नहीं होते हैं। ऐसे युवा में कुछ तो मेहनत मजदूरी करके पचास-साठ रुपये प्रतिदिन कमाकर किसी तरह जीवनयापन करते हैं, परंतु कुछ घर को धनिकों और फ़ाइनेंस कम्पनियों के ऋण के मकड़जाल में फंसा देते हैं । व्यक्तिगत ऋणों के ब्याज की दर तो प्राय: 48 से 60 प्रतिशत तक होती है जिसे एक बार लेकर अदा कर पाना इनके लिये असम्भव सा होता हैं। अत: अंत में घरवालों के पास भुखमरी, भीख, या आत्महत्या के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता है।
वोट की राजनीति एवं भ्रष्टाचार के कारण ग्रामीणों की आर्थिक दशा सुधारने हेतु शासन प्राय: वे सभी उपाय कर रहा है जिससे इनकी मुफ्तखोरी की आदत बढ़े जैसे ऋणमाफी, अनुदान, स्कूलों में नकल को बढ़ावा देना, आरक्षण को बढ़ावा, रिश्वत लेकर नौकरी दिलाना आदि। शासन वह नहीं कर रहा है जिससे ग्रामीण युवा में आत्म-सम्मान के साथ जीने और पढ़लिखकर योग्य बनने की प्रेरणा जाग्रत हो।
ऐसे में ग्रामों में दिनोंदिन संख्या में बढ़ते युवाओं का भविष्य शोचनीय है।