कवि और खजुराहो -अग्निशेखर
Kavi Aur Khajuraho -Agnishekhar
लहकती सरसों और आम्र-मंजरियों से होकर
हमने मोटरबाईक पर दौड़ते
छोड़ दिए पीछे गाय-बकरियों को चराते लोग
खेत काटतीं पसीना पोंछतीं स्त्रियाँ
पलाश की दहकती झाड़ियों
और बासों के झुरमुट से होकर
हम आम के बौर सूँघते
पहुँचे खजुराहो
हम जिन्हें रास्ते भर छोड़ आए थे पीछे
रोज़मर्रा की दुनिया में निमग्न
वे हमसे पहले पहुँच चुके थे खजुराहो
ये मिथुन मूर्तियाँ
ये अप्सराएँ और यक्षिणियाँ
अभी गा रही थीं सूरज पर खेती करने
और चाँद पर खलिहान लगाने के गीत
अभी दोहरा रही थीं
हिम्मत से हल जोतने के संकल्प
ताकि नहीं जाना पड़े
उनके सुहग को परदेस
वे गा रही थीं स्वप्न
कर रही थीं
अत्महत्याओं का प्रतिरोध
ये हैं स्त्रियाँ श्रम और राग से भरीं
उम्मीद और उमंगो में पगीं
सिरजती देहातीत
परा-भौतिक दुनियाएँ
ये मूर्तियाँ हैं केन नदी की जलतरंगे
कोई सँवरती एकान्त में
देखती आइना दूसरी
वो निकालती काँटा पाँव से
यह अलसाई नवयौवना
अंगड़ाई लेती
पुचकारती ममत्व से
पास खड़े बच्चों को
वे व्याल बिम्बों के बीच
उद्दाम मुक्तछ्न्द मैथुन करतीं
खजुराहो की मेनकाएँ
ठेंगा दिखतीं
किसी भी समाधि-सुख को
वो देखो दुल्हादेव मन्दिर के पश्चिमी कोण में
असम्भव मिथुन मुद्रा में लीन
एक अल्हड़ आदिवासिन…
लहकती सरसों और आम्र-मंजरियों से होकर
हम छोड़ते हैं खजुराहो पीछे
देखते पानी भरने जातीं
इन्हीं स्त्रियों को
जो थीं अभी दीवारों पर उकेरी गईं
गा रहीं–
“मटका न फूटे खसम मर जाए
भौंरा तेरा पानी
गज़ब कर जाए”
जवाब देती हैं बुन्देलखण्ड से उनकी बहनें–
“भूख के मरे ‘बिरहा’ बिसर गयो
भूल गई ‘कजरी’, ‘कबीर’…”
रुको सारथि
कवि केशव तिवारी
उतरा मेरे करेजवा में तीर…