Hindi Poem of Bharat Bhushan Aggarwal “Prashanchinha“ , “प्रश्नचिह्न” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

प्रश्नचिह्न
Prashanchinha

मूर्ति तो हटी, परन्तु
तम में भटकती हुई अनगिनती आंखों को
जिसने नई दृष्टि दी,
खोल दिए सम्मुख नए क्षितिज,

नूतन आलोक से मंडित की सारी भूमि-
जन-मन के मुक्तिदूत
उस देवता के प्रति,
श्रध्दा से प्रेरित हो,

समवेत जन ने,
प्रतिमा प्रतिष्ठित की अपने सम्मुख विराट!
अपने हृदयों में बसी ऊर्ध्यबाहु कल्पना,
पत्थर पर आंकी अति यत्न से!

मूर्ति वह अद्वितीय, महाकाय,
शीश पर जिसके हाथ, धरते थे मेघराज,
चरणों में जिसके जन, झुकते थे भक्ति से
अंजलि के फूल-भार के समान,

अधरों पर जिसके थी मंत्रमयी मुसकान
उल्लसित करती थी लोक-प्राण!
यों ही दिन बीत चले,
और वह मूर्ति-

दिन-पर-दिन, स्वयमेव
मानो और बडी, और बडी होती चली गई!
जड प्रतिमा में बंद यह रहस्य, यह जादू,
कितने समझ सके, कितने न समझे- यह कहना कठिन है।

क्योंकि उसे पूजा सब जन ने
भूलकर एक छोटा सत्य यह,
पत्थर न घटता है, न बढता है रंच मात्र,
मूर्ति बडी होती जा रही थी क्योंकि

वे स्वयं छोटे होते जाते थे,
भूलकर एक बडा सत्य यह,
मूर्ति की विराटता ने ढंक लिए वे क्षितिज,
देवता ने एक-एक करके जो खोले थे।

आखिर में एक दिन ऐसा भी आ पहुंचा,
मूर्ति जब बन चुकी थी आसमान,
और जन बन चुके थे चूहों-से, मेंढक-से,
छोटे-ओछे, नगण्य!

क्षितिजों के सूर्य की जगह भी वह मुस्कान,
जिसमें नहीं था कोई अपना आलोक-स्रोत!
होकर वे तम में बंद
फिर छटपटाने लगे!

तभी कुछ साहसी जनों ने बढ
अपनी लघुता का ज्ञान दिया हर व्यक्ति को।
और फिर,
शून्य बन जाने के भय से अनुप्राणित हो-

समवेत जन ने-
अपने ही हाथों से गढी हुई देवता की मूर्ति वह
तोड डाली-
छैनी से, टांकी से, हथौडी से,

जिसको जो मिला उसी शस्त्र से,
गढते समय भी ऐसा उत्साह कब था?
देखा तब सबने आश्चर्य से:
प्रतिमा की ओट में जो रमी रही एक युग,

उनकी वे दृष्टियां अब असमर्थ थीं,
कि सह सके सहज प्रकाश आसमान का!
और फिर सबने यह देखा असमंजस से:
मूर्ति तो हटी, परंतु सामने डटा था प्रश्न चिह्न यह:

मूंद लें वे आंखें या कि प्रतिमा गढें नई?
हर अंधी श्रध्दा की परिणति है यह खण्डन!
हर खण्डित मूर्ति का प्रसाद है यह प्रश्नचिह्न!

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