एक वाक्य
Ek vakya
चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत –
कह दो उनसे
जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है!
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थके हुए कलाकार से
Thake hue kalakar se
सृजन की थकन भूल जा देवता!
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अभी तो पलक में नहीं खिल सकी
नवल कल्पना की मधुर चाँदनी
अभी अधखिली ज्योत्सना की कली
नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अधूरी धरा पर नहीं है कहीं
अभी स्वर्ग की नींव का भी पता!
सृजन की थकन भूल जा देवता!
रुका तू गया रुक जगत का सृजन
तिमिरमय नयन में डगर भूल कर
कहीं खो गई रोशनी की किरन
घने बादलों में कहीं सो गया
नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन
रुका तू गया रुक जगत का सृजन
अधूरे सृजन से निराशा भला
किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता
सृजन की थकन भूल जा देवता!
प्रलय से निराशा तुझे हो गई
सिसकती हुई साँस की जालियों में
सबल प्राण की अर्चना खो गई
थके बाहुओं में अधूरी प्रलय
और अधूरी सृजन योजना खो गई
प्रलय से निराशा तुझे हो गई
इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं
पड़ी हो, नयी ज़िन्दगी; क्या पता?
सृजन की थकन भूल जा देवता