पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी
Patni to nahi he na hum aapki
नहीं लिखा गया तो
एक ओर रख दिया कागज
बंद कर दिया ढक्कन पेन का
और बैठ गया लगभग चुप
माथा पकड़ कर।
‘रूठ गए क्या?’,
आवाज आई अदृश्य
हिलते हुए
एक ओर रखे कागज से,
‘हमें भी तो मिलनी चाहिए न कभी छुट्टी।
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी!’
बहुत देर तक सोचता रहा मैं
सोचता रहा-
पत्नी से क्यों की तुलना
कविता ने?
करता रहा देर तक हट हट
गर्दन निकाल रहे
अपराध बोध को।
खोजता रह गया कितने ही शब्द
कुतर्कों के पक्ष में।
बचाता रहा विचारों को
स्त्री विमर्श से।
पर कहाँ था इतना आसान निकलना
कविता की मार से!
रह गया बस दाँत निपोर कर–
कौन समझ पाया है तुम्हें आज तक ठीक से
कविता?
‘पर
समझना तो होगा ही न तुम्हें कवि।’
आवाज फिर आई थी
और मैं देख रहा था
एक ओर पड़ा कागज
फिर हिल रहा था।