शिव-विरह
Shiv Virah
उमँगता उर पितृ-गृह के नाम से ही!
तन पुलकता, मन उमड़ आता!
जन्म का नाता!
सती, आई हुलसती,
तन पहुँचता बाद में
उस परम प्रिय आवास में
पहले पहुँच जाता उमगता-दौड़ता मन!
यज्ञ-थल पर आगमन,
देखते चुप पूज्यजन-परिजन.
निमंत्रित अतिथि, पुरजन- भीड़!
नेत्र विस्मित! नहीं स्वागत कहीं
विद्रूप पूरित बेधती, चुभती हुई सी दृष्टि!
‘भाग शिव का नहीं’, कोई कह रहा,
‘यह आ गई क्यों!’
‘यज्ञ में है कहाँ शिव का भाग? ‘
‘किसलिये? कुलहीन, उस दुःशील का परिवार में क्या काम!
क्यों चली आई यहाँ लेने उसी का नाम? ‘
उठीं जननी,
‘क्यों भला, उसका कहाँ है दोष? ‘
‘दोष उसका ही कि नाता जोड़ अपमानित किया,
फिर माँगती है भाग, दिखला रोष!’
घोर पति अवमानना,
उपहास नयनों में सहोदर भगिनियों के.
और ऊपर से पिता के वचन;
दहकी आग!
क्षुब्ध दाक्षायणि, हृदय की ग्लानि, बनती क्षोभ!
क्यों, चली आई यहाँ?
लोक में अपमान सह कर जिऊँ,
प्रियपति के लिये लज्जा बनी मैं?
पति, जिसे आभास था –
‘सती, मत जा! द्वेष है मुझसे उन्हें!
अपमान सहने वहाँ, मत जा!’
किन्तु मेरा हठ!
विवश हो कर दे दिये गण साथ!
दहकता मानस कि दोहरा ताप!
एक विचलन ले गई पत्नीत्व का अधिकार,
जग गया फिर तीव्र हो पिछला मनःसंताप,
और अब यह अप्रत्याशित और तीखा वार!
स्वयं पर उठने लगी धिक्कार,
नहीं जीने का मुझे अधिकार!
विरह-दग्धा, शान्ति-हीन सती भटक कर
चली आई थी यहाँ, पुत्रीत्व का विश्वास पाले!
फटा जाता हृदय किस विधि से सँभाले!
इस पिता के अंश से निर्मित
विदूषित देह!
हर से मिलन अब संभव नहीं!
क्रोध पूरित स्वर’पिता, बस,
अब बहुत, आगे कुछ न कहना!
तुम न पाये जान शिव क्या?
और दूषण दे उन्हें लांछित किया जो,
उसी तन का अंश हूँ मैं!
लो, कि ऐसी देह, मैं अब त्यागती हूँ!’
लगा आसन शान्त हो मूँदे पलक-दल,
योग साधा, प्राण को कर ऊर्ध्व गामी
ब्रह्म-रंध्र कपाल तपता ज्योति सा!
और लो, अति तीव्र पुंज- प्रकाश
मस्तक से निकल कर अंतरिक्षों में समाया!
प्राण हीना देह भर भू पर!!
रुक गय़े सब मंत्र के उच्चार!
लुप्त कंठों से कि मंगलचार!
मच गया चहुँ ओर हाहकार,
यज्ञ- भू को चीरते चीत्कार गूँजे!
नारियाँ रोदन मचाती!
धूममय मेघावरण छाया धरा पर,
विभ्रमित से दक्ष, नर औ’ देव ऋषि स्तब्ध,
क्रोध भर चीखें उठाते भूत-प्रेत अपार!
दौड़ते विध्वंस करते रौद्र- रस साकार
क्रोधित शंभु-गण विकराल!
और क्षिति के मंच पर फिर हुआ दृष्यान्तर –
कामनाओं की भसम तन पर लपेटे,
बादलों में उलझता गजपट लहरता,
घोर हालाहल समाये कंठ नीला,
बिजलियों को रौंदते पल-पल पगों से,
विकल संकुल चित्त, सारा भान भूला
गगन पथ से आ रहे शंकर!
मेघ टकराते, सितारे टूट गिरते,
जटायें उड़-उड़ त्रिपथगा पर हहरतीं,
वे विषैले नाग लहराते बिखरते.
भयाकुल सृष्टा कि ज्वालायें न दहकें!
पौर-परिजन जहाँ जिसका सिर समाया,
यज्ञ-भू में, दक्ष का लुढ़का पड़ा सिर
रुंड वेदी से छिटक कर,
कुण्ड-तल में जा गिरा शोणित बहाता!
यज्ञ-हवि लोभी, प्रताड़ित देव भागे,
सुक्ख-भोगी, स्वार्थी, निष्क्रिय, अभागे,
कंदराओं में छिपे हतज्ञान कुंठित,
दनुज- नर- किन्नर सभी हो त्रस्त विस्मित!
यज्ञ-भू में बह रही अब रक्तधारें,
काँपते धरती- गगन बेबस दिशायें!
उड़ रहीं हैं मुक्त बिखरी वे जटायें,
तप्त निश्वासें कि दावानल दहकते
कंठगत उच्छ्वास, ऐसा हो न जाये.
कहीं उफना कर कि तरलित गरल बिखरे!
मचाते विध्वंस शिवगण क्रोध भरभर,
चीखते मिल प्रेत जैसे ध्वनित मारण- मंत्र!
रव से पूर्ण अंबर!
स्वयं की अवमानना से जो अविचलित,
पर प्रिया का मान क्यों कर हुआ खंडित!
वियोगी योगी- हृदय की क्षुब्ध पीड़ा,
देखतीं सारी दिशायें नयन फाड़े!
मानहीना हो पिता से जहाँ पुत्री,
उस परिधि में क्यों रहे स्थिर धरित्री?
स्तब्ध हैं लाचार-सी सारी दिशायें,
दनुज, नर भयभीत, सारे नाग, किन्नर!
कंठगत विष श्वास में घुलता निरंतर!
घूमते आते पवन-उन्चास हत हो लौटते फिर!
आह, अर्धांगी बिना,मैं अधूरा -सा,
रिक्त -सा, अतिरिक्त सा-
दिग्भ्रमित जैसे कि सब सुध-बुध बिसारे,
देखते कुछ क्षण वही बेभान तन,
वह मुख गहनतम मौन धारे,
फिर भुजा से साध, वह प्रिय देह काँधे पर सँवारे,
हो उठे उन्मत्त प्रलयंकर!
प्रज्ज्वलित-से नयन विस्फारित भयंकर,
वन- समुद्रों- पर्वतों के पार, बादल रौंदते,
विद्युत- लताओं को मँझाते,
घूमते उन्मत्त से शंकर!
प्रिया की अंतर्व्यथा का बोध,
रह-रह अश्रु भर जाता नयन में,
तप्त वे रुद्राक्ष झर जाते धरा पर!
पर्वतों- सागर- गगन में मत्त होकर घूमते शंकर!
छोड़ते उत्तप्त निश्वासें!
उफनते सागर कि धरती थरथराती,
पर्वतों की रीढ़ रह-रह काँप जाती!
शून्यता के हर विवर को चीरती -सी
अंतरिक्षों में सघन अनुगूँज भरती!
कौन जो इस प्रेम-योगी को प्रबोधे?
विरह की औघड़-व्यथा को कौन शोधे?
इस घड़ी में कौन आ सम्मुख खड़ा हो,
सृष्टि – हित जब प्रश्न बन पीछे पड़ा हो!
हो उठे अस्थिर रमापति सोच डूबे,
तरल दृग की कोर से रह-रह निरखते,
किस तरह शिव से सती का गात छूटे!
किस तरह व्यामोह से हों मुक्त शंकर?
किस तरह इस सृष्टि का संकट टले,
कैसे पुनः हो शान्त यह नर्तन प्रलयकर!
दो चरण सुकुमार,
आलक्तक- सुरंजित, नूपुरोंयुत,
विकल गति के साथ हिलते-झूलते,
भस्म लिपटी कटि, कि बाघंबर परसते!
चक्र दक्षिण तर्जनी पर
यों कि दे मृदु-परस वंदन कर रहे हों,
यों कि अति लाघव सहित
पग आ गिरें भू पर!
और क्रम-क्रम से –
कदलि-जंघा, कटि,
वलय कंकण मुद्रिका सज्जित सुकोमल कर अँगुलियाँ,
पृष्ठ पर शिव के निरंतर झूलता हिलता
सती का शीश, श्यामल केश से आच्छन्न,
वह सिन्दूर मंडित भाल!
कर्णिका मणि-जटित जा छिटकी कहीं,
मीलित कमल से नयन
जिह्वा,ओष्ठ दंत,कपोल,नासा
विलग हों जैसे कि किसी विशाल तरु से पुष्प झर-झर!
और फिर अति सधा मंदाघात!
शंकर की भुजा में यत्न से धारित,
हृदय से सिमटा कमर- काँधे तलक देवी सती का शेष तन
झर गिरा हर हर
मंद झोंके से कि जैसे विरछ से
सहसा गिरे टूटी हुई शाखा धरा पर!
हाथ शिव का ढील पा कर
झटक झूला,
और चौंके शंभु हो हत-बुद्ध –
यह क्या घट गया?
थम गया ताँडव, रुके पग!
जग पड़े हों सपन से जैसे,
देखते चहुँ ओर भरमाये हुये से!
धूम्रपूरित बादलों में छिपी धरती,
चक्रवाती पवन चारों ओर से अनुगूँज भरता!
कुछ नहीं, कोई नहीं बस एक गहरी रिक्ति!
घूमता है सिर कि दुनिया घूमती है!
और चौंके शंभु
देखते कर, भार-गत झटका हुआ,
भटका हुआ-सा!
अरे, यह क्या?
प्रिया…गौरि, उमा? कहाँ वह..
मूढ़ और हताश से, विस्मित विभर्मित,
जड़ित से, कुछ समझने के जतन में
स्तंभित खड़े हर!
प्रश्न केवल प्रश्न, कोई नहीं उत्तर,
थकित, बौराए हुए-से शिव खड़े निस्संग!
स्वप्न यह है? या कि वह था?
याद आता ही नहीं क्या हो गया!
चिह्न कोई भी नहीं
सपना कि सच था?
मैं कहाँ था? मैं कहाँ हूँ?
नहीं कोई यहाँ!
किससे कहें? जायें कहाँ?
पार मेघों के हिमाच्छादित विपुल विस्तार!
लगा परिचित- सा बुलाता,
समा लेगा जो कि बाहु पसार!
स्वयं में डूबे हुये से,
श्लथ-भ्रमित, से अस्त-व्यस्त, विमूढ़ बेबस,
पर्वतों के बीच विस्तृत शिला पर आसीन!
स्वयं को संयत किये मूँदे नयन!
अभ्यास वश अनयास ही
शिव हुये समाधि-विलीन!