Hindi Poem of Pratibha Saksena “  Vipathga”,” विपथगा” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

विपथगा

 Vipathga

 

प्राणों में जलती आग ,

हृदय में यग-युग का वेदना-भार ,

नयनों मे पानी ,अधरों पर चिर-हास लिये!

मैं चली वहाँ से जहाँ न थी पथ की रेखा ,

मैं चिर-स्वतंत्र अपना अजेय विश्वास लिये!

मुझको इस रूखी माटी ने निर्माण दिया

धरती अंतर्ज्वाला ने दी मुझे आग .

गंगा यमुना बँध गईं पलक की सीमा में

आकाश भर गया चेतनता की नई श्वास!

मुझको आना क्या ,जाना क्या

फिर मेरा ठौर-ठिकाना क्या

मैं शुष्क उजाड़ हवा पर मुझमें ही सौ-सौ मधुमास जिये!

जब मैं आई ,तब चारों ओर अँधेरा था ,

जीवन के शिशु को कोई प्यार-दुलार न था!

आँचल की छाँह नहीं थी ,बाँह नहीं कोई ,

धरती पर पुत्रों का कोई अधिकार न था!

देखे माँ के लाड़ले पूत दर-दर की ठोकर पर जीते ,

जिनके हाथों ही ये नभचुम्बी गेह बने

मानव को बिकते देखा है मैंने चाँदी के टुकड़ों पर

.महलों के नीचे झोपड़ियों के जो दीपक..निःस्नेह बने!

गिरती दीवारें देख हँसी आ जाती है ,

निर्माताओं के उन्हीं हवाई सपनों का ,

मैं धूल उड़ाती उनके शेष खँडहरों में ,

फिर चल देती पतझर सी सूनी साँस लिये!

छुप जातीं सभी वर्जनायें घबराई-सी

मेरी ठोकर पा पथ से हट जाते विरोध

निश्चय का लोहा मान रास्ता खुल जाता,

जितने प्रवाद जुड़ते दे जाते  नया बोध

अनगिनत विरोधों का तीखापन जमजमकर हो गया क्षार ,

घुल गया स्वरों में  कटुता बन कर  उभरा आता बार -बार

चल देती हूँ मैं अपनी राहें आप बना

बढ़ती हूं  अनगिनती आँखों का उपहास पिये!

मैं बनी विपथ-गा महाकाल के उर पर युगल चरण धारे ,

मैं ही दिगंबरी चामुण्डा ,, जो रक्तबीज को संहारे!

मैं चिन्गारी ,जो ज्वाला बन कर डाले भस्म सात् सबकुछ,

पर गृहलक्ष्मी के चूल्हे में  जो  तृप्ति और पोषण में रत!

सारे अवरोध -विरोध फूँक में उड़ा अबाध अप्रतिहत गति

कुछ नई इबारत देती लिख युग के कपाट पर दे दस्तक  

जड़ परंपरा की धूल उड़ा प्रश्नों को प्रत्युत्तर देती

खंडित  निर्जीव मान्यतायें  कर बो देती विश्वास नये!

 

 

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.