हम किसको परिचित कह पाते – राकेश खंडेलवाल
Hum Kisko parichit kah pate – Rakesh Khandelwal
हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर न तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते
अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला
स्वर के बिना गीत है लेकिन, बुझे हुए दीपक के जैसा
हम अपने आराधित का क्या पूजन क्या अर्चन कर पाते
नयन पालकी में आ बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां
यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते
साँसों की शहनाई की सरगम में गूँजा नाम एक ही
जीवन के हर पथ का भी गंतव्य रहा है नाम एक ही
एक ध्येय है , एक बिन्दु है, एक वही बन गया अस्मिता
प्राण बाँसुरी को अभिलाषित, रहा अधर जो स्पर्श श्याम ही
जर्जर, धूल धूसरित देवालय की इक खंडित प्रतिमा में
प्राण प्रतिष्ठित नहीं जानते, उम्र बिताई अर्घ्य चढ़ाते
सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
टूटे हुए तार पर सारंगी का एक कहानी गाना
काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे
जो पागल मन, उसको गहरा जीवन का दर्शन समझाना
धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते