Hindi Poem of Shiv Mangal Singh Suman “  Jal rahe hai deep, jalti hai javani“ , “जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी

 Jal rahe hai deep, jalti hai javani

 

वर्तिकाएँ बट बिसुध बाले गए हैं

वे नहीं जो आँचलों में छिप सिसकते

प्रलय के तूफ़ान में पाले गए हैं

एक दिन निष्ठुर प्रलय को दे चुनौती

हँसी धरती मोतियों के बीज बोती

सिंधु हाहाकार करता भूधरों का गर्व हरता

चेतना का शव चपेटे, सृष्टि धाड़ें मार रोती

एक अंकुर फूटकर बोला कि मैं हारा नहीं हूँ

एक उल्का-पिण्ड हूँ, तारा नहीं हूँ

मृत्यु पर जीवन-विजय उदघोष करता

मैं अमर ललकार हूँ, चारा नहीं हूँ

लाल कोंपल से गयी भर गोद धरती की

कि लौ थी जगमगाई,

लाल दीपों की प्रगति-परम्परा थी मुस्कराई,

गीत, सोहर, लोरियाँ जो भी कहो तुम

गोद कलियों से भरे लोनी-लता झुक झूम गायी

और उस दिन ही किसी मनु ने अमा की चीर छाती

मानवी के स्नेह में बाती डुबायी

जो जली ऐसी कि बुझने की बुझायी-

बुझ गयी, शरमा गयी, नत थरथरायी

और जीवन की बही धारा जलाती दीप सस्वर

आग-पानी पर जली-मचली पिघलने लगे पत्थर

जल उठे घर, जल उठे वन

जल उठे तन, जल उठे मन

जल उठा अम्बर सनातन

जल उठा अंबुधि मगन-मन

और उस दिन चल पड़े थे साथ उन्चासों प्रभंजन

और उस दिन घिर बरसते साथ उन्चासों प्रलय-घन

अंधड़ों में वेग भरते वज्र बरबस टूट पड़ते

धकधकाते धूमकेतों की बिखर जाती चिनगियाँ

रौद्र घन की गड़गड़ाहट कड़कड़ाती थी बिजलियाँ

और शिशु लौ को कहीं साया न था, सम्बल नहीं था

घर न थे, छप्पर न थे, अंचल नहीं था

हर तरफ़ तूफ़ान अन्धड़ के बगूले

सृष्टि नंगी थी अभी बल्कल नहीं था

सनसनाता जब प्रभंजन लौ ध्वजा-सी फरफराती

घनघनाते घन कि दुगुणित वेदना थी मुस्कराती

जब झपेटों से कभी झुक कर स्वयं के चरण छूती

एक लोच कमान की तारीकियों को चीर जाती

बिजलियों से जो कभी झिपती नहीं थी

प्रबल उल्कापात से छिपती नहीं थी

दानवी तम से अकड़ती होड़ लेती

मानवी लौ थी कि जो बुझती नहीं थी

क्योंकि उसको शक्ति धरती से मिली थी

हर कली जिस हवा पानी में खिली थी

सहनशीलता, मूकतम जिसकी अतल गहराइयों में

आह की गोड़ी निगोड़ी खाइयों में

स्नेह का सोता बहा करता निरंतर

बीज धँसता ही चला जाता जहाँ जड़ मूल बनकर

गोद में जिसके पला करता विधाता विवश बनकर

धात्री है वह सृजन के पंथ से हटती नहीं है

व्यर्थ के शिकवे प्रलय-संहार के रटती नहीं है

जानती है वह कि मिट्टी तो कभी मिटती नहीं है

आग उसकी ही निरंतर हर हृदय में जल रही है

स्वर्ण दीपों की सजीव परम्परा-सी चल रही है

हर अमा में, हर ग्रहन की ध्वंसपूर्ण विभीषिका में

एक कसकन, एक धड़कन, बार-बार मचल रही है

बर्फ की छाती पिघलकर गल रही है, ढल रही है

आज भी तूफान आता सरसराता

आज भी ब्रह्माण्ड फटता थरथराता

आज भी भूचाल उठते, क़हर ढहता

आज भी ज्वालामुखी लावा उगलता

एक क्षण लगता की जीत गया अँधेरा

एक क्षण लगता कि हार गया सवेरा

सूर्य, शशि, नक्षत्र, ग्रह-उपग्रह सभी को

ग्रस रहा विकराल तम का घोर घेरा

किंतु चुंबक लौह में फिर पकड़ होती

दो दिलों में, धमनियों में रगड़ होती

वासना की रूई जर्जर बी़च में ही

उसी लौ की एक चिनगी पकड़ लेती

और पौ फटती, छिटक जाता उजाला

लाल हो जाता क्षितिज का वदन काला

देखते सब, अंध कोटर, गहन गह्वर के तले पाताल की मोटी तहों को

एक नन्ही किरण की पैनी अनी ने छेद डाला,

मैं सुनाता हूँ तुम्हें जिसकी कहानी

बात उतनी ही नयी है, हो चुकी जितनी पुरानी

जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी

 

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