बन जाता दीप्तिवान
Ban jata diptivan
सूरज सवेरे से
जैसे उगा ही नहीं
बीत गया सारा दिन
बैठे हुए यहीं कहीं
टिपिर टिपिर टिप टिप
आसमान चूता रहा
बादल सिसकते रहे
जितना भी बूता रहा
सील रहे कमरे में
भीगे हुए कपड़े
चपके दीवारों पर
झींगुर औ’ चपड़े
ये ही हैं साथी और
ये ही सहभोक्ता
मेरे हर चिन्तन के
चिन्तित उपयोक्ता
दोपहर जाने तक
बादल सब छँट गये
कहने को इतने थे
कोने में अँट गये
सूरज यों निकला ज्यों
उतर आया ताक़ से
धूप वह करारी, बोली
खोपड़ी चटाक से
ऐसी तच गयी जैसे
बादल तो थे ही नहीं
और अगर थे भी तो
धूप को है शर्म कहीं?
भीगे या सीले हुए
और लोग होते हैं
सूरज की राशि वाले
बादल को रोते हैं?
ओ मेरे निर्माता
देते तुम मुझको भी
हर उलझी गुत्थी का
ऐसा ही समाधान
या ऐसा दीदा ही
अपना सब किया कहा
औरों पर थोपथाप
बन जाता दीप्तिवान ।