प्रोत्साहन से खुल जाते हैं विकास के द्वार
Protsahan se Khul jate hai vikas ke Dwar
रत्येक मनुष्य के विकास की असीम क्षमताएं उसके भीतर मौजूद होती हैं। सुप्त रूप में रहने वाली इन क्षमताओं के विकास के लिए आंतरिक प्रेरणा तो जरूरी होती है, बाह्य वातावरण का प्रभाव भी कम महत्व नहीं रखता। रामायण में हनुमान और जाम्बवंत का यह प्रसंग इसी तथ्य को सिद्ध करता है। यह सर्वविदित है कि हनुमानजी की शक्ति अतुलनीय थी, किंतु एक मुनि के श्राप से वे अपनी क्षमताओं को भुल गए थे। इस श्राप का निदान यह था कि कोई अन्य व्यक्ति उन्हें अपने बल का स्मरण कराए तो उन्हें यह विस्मृत बात याद आ जाएगी।सीता माता की खोज में जब श्रीराम की सेना दक्षिणी छोर पर समुद्र तक पहुंची, तो आगे सागर पारकर लंका जाने की कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई। सभी चिंतित व परेशान थे। समुद्र पार कैसे करें?तब जाम्बवंत आगे आए और उन्होंने हनुमान को अपने पूर्वकाल का असीम बल तथा क्षमताओं के विषय में स्मरण कराया। तब हनुमानजी को सब कुछ याद आ गया और उन्होंने पुन: अपनी शक्तियों को प्राप्त कर लिया। जिनके बल पर वे सहज ही छलांग लगाकर समुद्र पार कर लंका पहुंच गए। वहां जाकर रावण और उनकी सेना को छठी का दूध याद दिलाया और सीता माता से भेंटकर उनका संदेश श्रीराम को लाकर दिया। अपनी प्रिय भार्या का संदेश सुनकर श्रीराम में भी एक अद्भूत बल का संचार हुआ और उनकी सेना अपने नायक को जोश में देखकर एक नवीन स्फूर्ति से भर गई। ऐसे उत्साहजनक माहौल में समुद्र पर पुल बनाना और लंका पहुंचकर रावण को मारकर युद्ध में विजयश्री का वरण करना आदि घटनाएं सर्वज्ञात ही हैं।वस्तुत: जाम्बवंत का हनुमान को प्रोत्साहन इस कड़ी का महत्वपूर्ण बिंदू है क्योंकि उन्होंने ही हनुमान के भीतर आत्मविश्वास और आंतरिक प्रेरणा को जागृत किया था।कहने का आशय है कि यदि हम दूसरों को प्रोत्साहन देकर उनमें छिपी क्षमताओं को बाहर लाने का कार्य करें, तो समाज को अधिकतम सकारात्मकता की ओर मोड़ा जा सकता है।