Hindi Short Story, Moral Story “  Bafadari ka puraskar”, ”  वफादारी का पुरस्कार” Hindi Motivational Story for Primary Class, Class 9, Class 10 and Class 12

वफादारी का पुरस्कार

 Bafadari ka puraskar

 

 लाला पीतांबरलाल धरमपुरा रियासत के दीवान थे। पचास गांव की इस छोटी-सी रियासत के राजा शिवपालसिंह एक कर्तव्यनिष्ठ, दयालु और प्रजा के हित में काम करने वाले धर्म प्रिय राजा थे।

 दीवान पीतांबर लालजी का रियासत में बहुत सम्मान था क्योंकि वे न्याय प्रिय और जनता के सुख-दुख में सदा सहायता करने के लिए तत्पर रहने वाले व्यक्ति थे। अंग्रेजों का राज्य था, किंतु इस रियासत के सभी मामले राजा शिवपाल की ओर से नियुक्त दीवान पीतांबर लालजी ही निपटाते थे।

 इसके लिए जिलाधीश के कार्यालय में एक कुर्सी अलग से रखी रहती थी, जहां दीवान साहब नियमित रूप से सप्ताह में तीन दिन बैठकर मामलों पर फैसले लेते थे। राज्य का हर काम दीवानजी की सलाह पर ही होता था।

 एक दिन देर रात्रि में राजा के दूत ने दीवान साहब को सूचित किया कि वे दूसरे दिन बड़े तड़के ही उठकर पड़ोस के राज्य की ओर प्रस्थान कर वहां के राजा की पुत्री के विवाह में शामिल हों। चूंकि वहां पहुंचते-पहुंचते शाम हो जाएगी इसलिए सुबह चार बजे निकलना ही होगा।

 लाला साहब ने हुक्म की तामील की और भोर चार बजे उठकर अपनी बग्गी तैयार कराई और अपने दो सुरक्षा सैनिकों को लेकर चल पड़े। मंजिल दूर थी इस कारण पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। थोड़ा-सा विश्राम करने के बाद दीवान साहब विवाह स्थल पर जा पहुंचे।

 विवाह कार्यक्रम आरंभ हो चुका था और दूसरे राज्यों के राजा अथवा उनके प्रतिनिधी अपने साथ लाए उपहार राजकुमारी को दे रहे थे। कोई स्वर्ण आभूषण लाया था, तो कोई हीरों का हार लाया था, कोई थाल भरकर स्वर्ण मुद्राएं लिए कतार में खड़े थे, तो कई राजा विदेशी घोड़े अथवा रथ जैसे बहुमूल्य उपहार लेकर आए थे।

 तभी दीवान पीतांबरलाल की बारी आ गई। दीवान साहब परेशान हो गए क्योंकि वे इस तरह की तैयारी से नहीं आए थॆ। राजा साहब की तरफ से विवाह में जाने की जो सूचना उन्हें मिली थी वह रात्रि को बहुत देर से मिली थी, राजा साहब से उपहार के संबंध में कोई सलाह-मश्वरा भी नहीं ले सके थे, न ही राजा साहब ने ऐसा कोई संदेश भेजा था। वह केवल रास्ते में होने वाले व्यय के हिसाब से थोड़ा बहुत धन तो रखे थे परंतु इतना नहीं कि विवाह के उपहार में दिया जा सके।

 अचानक बिना किसी झिझक के उन्होंने अपनी रियासत के दो गांव उपहार में देने की घोषणा कर दी। दूसरे राज दरबारी कानाफूसी करने, इतनी छोटी-सी रियासत ने दो पूरे गांव उपहार में दे दिए। कहीं यह दीवान पागल तो नहीं हो गया है।

 खैर दूसरे दिन दीवान साहब वापिस धरमपुरा प्रस्थान कर गए। रास्ते भर सोचते रहे की राजा साहब अवश्य ही नाराज होंगे कि उनसे बिना पूछे दो गांव उपहार में दे आया। भगवान को स्मरण करते करते वे घर पहुंच गए।

 वैसे उन्हें इस बात की आशंका थी कि राजा साहब जरूर क्रोधित होंगे, कुल पचास गांव में से दो गांव उपहार में देना मूर्खता ही तो थी। दूसरे दिन वे दरबार में उपस्थित हुए। राजा साहब ने पूछा- कहिए दीवान साहब, कैसा रहा विवाह समारोह, अरे आप कुछ उदास दिख रहे हैं, क्या बात है? – राजा साहब ने उनके चेहरे कॊ भांप कर पूछा।

‘महाराज एक बहुत बड़ी भूल हो गई।‘ दीवान जी ने डरते-डरते कहा।

‘ऐसी क्या भूल हो गई जो हमारे चतुर दीवान जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं हैं।‘

 ‘महाराज मैं विवाह में गया तो आपसे सलाह-मश्वरा भी नहीं कर पाया था कि वहां उपहार में क्या देना है।‘

 ‘अरे फिर आपने क्या किया?‘ राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ।

‘महाराज गुस्ताखी माफ हो, मैंने अपनी रियासत के दो गांव उपहार में दे दिए। इज्जत का सवाल था……..।’

 ‘वाह लाला साहब आपने तो मेरी नाक बचा ली, राजपूती शान क्या होती है आपसे अच्छा और कौन जान सकता है।‘

– राजा साहब ने खुद उठकर दीवानजी को गले लगा लिया। ‘दो गांव तो क्या आप पांच गांव भी दे आते तो मुझे दुख न होता।‘ ऐसा कहकर राजा साहब ने एक गांव की कर बसूली की संपूर्ण आय प्रति माह दीवान जी को देने की घोषणा कर दी। आखिर उन्हें वफादारी और अपनी आन-बान-शान को बचाने का पुरस्कार मिलना ही था।  

 

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