Hindi story Mahabharat Katha “Pandavo ki Tirath Yatra”, ”पाण्डवों की तीर्थयात्रा” Hindi Mahabharat story for Primary Class, Class 9, Class 10 and Class 12

पाण्डवों की तीर्थयात्रा  – महाभारत कथा

Pandavo ki Tirath Yatra – Mahabharat Katha 

 

 दुःखी होकर उन्हीं के विषय में बातें कर रहे थे कि वहाँ पर लोमश ऋषि पधारे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके उच्चासन प्रदान किया। लोमश ऋषि बोले, “हे पाण्डवगण आप लोग अर्जुन की चिन्ता छोड़ दीजिये। मैं अभी देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से आ रहा हूँ। अर्जुन वहाँ पर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। उन्होंने भगवान शिव एवं अन्य देवताओं की कृपा से दिव्य तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र तथा चित्रसेन से नृत्य-संगीत कला की शिक्षा भी प्राप्त कर लिया है। वे अब निवात और कवच नामक असुरों का वध करके ही यहाँ आयेंगे। देवराज इन्द्र ने आपके लिये यह संदेश भेजा है कि आप पाण्डवगण अब तीर्थयात्रा करके अपने आत्मबल में वृद्धि करें। देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा।

अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो। पितृगणों की बात से दुःखी होकर अगस्त्य एक सुयोग्य पत्नी की खोज में निकले और विदर्भ देश की राजकुमारी लोपामुद्रा से विवाह कर लिया। जब अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर पुत्रोत्पत्ति की अभिलाषा से उसे अपने पास आने के लिये कहा तो लोपामुद्रा बोली कि हे स्वामी मैं राजकुमारी हूँ इसलिये आपका मेरे साथ समागम भी राजोचित ढंग से होना चाहिये। पहले आप धन की व्यवस्था कर के मेरे और स्वयं के लिये सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्णाभूषण ले कर आइये। अपनी पत्नी की वाणी से प्रभावित होकर अगस्त्य मुनि धन माँगने के लिये राजा श्रुतर्वा, व्रघ्नश्व तथा इक्ष्वाकु वंशी त्रसदृस्यु के पास गये किन्तु सभी राजाओं का कोष खाली होने के कारण उन राजाओं क्षमाप्रार्थना करते हुये ने अगस्त्य मुनि को धन देने में असमर्थता प्रकट कर दिया। निराश होकर अगस्त्य मुनि इल्वल नामक दैत्य के पास पहुँचे। इल्वल दैत्य ने प्रसन्नता के सा उन्हें मुँहमाँगा धन प्रदान कर दिया। धन प्राप्त करके अगस्त्य मुनि ने अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति की और दृढस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तर में यह तीर्थस्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तीर्थस्थान में स्नान करके परशुराम ने अपना तेज पुनः प्राप्त किया था। इसलिये हे युधिष्ठिर यहाँ स्नान करके आप दुर्योधन के द्वारा छीने गये अपने तेज को पुनः प्राप्त कीजिये।”

लोमश ऋषि के आदेशानुसार वहाँ स्नान-पूजा आदि करके युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, “हे प्रभो कृपा करके यह बताइये कि परशुराम निस्तेज कैसे हुये थे?” लोमश ऋषि ने उत्तर दिया, “धर्मराज दशरथनन्दन श्री राम जब शिव जी के धनुष को तोड़कर सीता जी से विवाह कर अपने पिता, भाइयों, बारातीगण आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे तो एक बड़े जोरों की आँधी आई जिससे वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे। तभी राजा दशरथ की दृष्टि भृगुकुल के परशुराम पर पड़ी। उनकी वेशभूषा बड़ी भयंकर थी। तेजस्वी मुख पर बड़ी बड़ी जटायें बिखरी हुई थीं नेत्रों में क्रोध की लालिमा थी। कन्धे पर कठोर फरसा और हाथों में धनुष बाण थे। ऋषियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया और इस स्वागत को स्वीकार करके वे श्री रामचन्द्र से बोले़ “दशरथनन्दन राम हमें ज्ञात हुआ है कि तुम बड़े पराक्रमी हो और तुमने शिव जी के धनुष को तोड़ डाला है और उसे तोड़कर तुमने अपूर्व ख्याति प्राप्त की है। मैं तुम्हारे लिये एक अच्छा धनुष लाया हूँ। यह धनुष साधारण नहीं है, जमदग्निकुमार परशुराम का है। इस पर बाण चढ़ाकर तुम अपने शौर्य का परिचय दो। तुम्हारे बल और शौर्य को देखकर मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा। परशुराम की बात सुनकर राजा दशरथ विनीत स्वर मे बोले, “भगवन् आप वेदविद् स्वाध्यायी ब्राह्मण हैं। क्षत्रियों का विनाश करके आप बहुत पहले ही अपने क्रोध का शमन कर चुके हैं। इसलिये हे ऋषिराज आप इन बालकों को अभय दान दीजिये।” किन्तु परशुराम जी ने दशरथ की अनुनय-विनय पर कोई ध्यान न देते हुये राम से कहा, “राम सम्भवतः तुम्हें ज्ञात नहीं होगा कि संसार में केवल दो ही धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सारा संसार उनका सम्मान करता हैं विश्वकर्मा ने उन्हें स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनमें से पिनाक नामक एक धनुष को देवताओं ने भगवान शिव को दिया था। इसी धनुष से भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। तुमने उसी धनुष को तोड़ डाला है। दूसरा दिव्य धनुष मेरे हाथ में है। इसे देवताओं ने भगवान विष्णु को दिया था। यह भी पिनाक की भाँति ही शक्तिशाली है। विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में वह धनुष दे दिया। वंशानुवंश रूप से यह धनुष मुझे प्राप्त हुआ है। अब तुम एक क्षत्रिय के नाते इस धनुष को लेकर इस पर बाण चढ़ाओ और सफल होने पर मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो। परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, “हे भार्गव मैं ब्राह्मण समझकर आपके सामने विशेष बोल नहीं रहा हूँ।

 किन्तु आप मेरी इस विनशीलता को पराक्रमहीनता एवं कायरता समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।” यह कह कर उन्होंने झपटते हुये परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये। फिर धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, “हे भृगुनन्दन ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं, इसलिये इस बाण को मैं आपके ऊपर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना ही पड़ता है। इसलिये इस बाण के द्वारा आपकी सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।” श्री राम की यह बात सुनकर शक्तिहीन से हुये परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, “बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके जब मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी तो उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात्रि में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। अतः हे राम कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाउँगा। चूँकि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मेँने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का वध करने वाले साक्षत विष्णु हैं।” परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार करके राम ने बाण छोड़कर उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित किये गये समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया और इससे परशुराम जी निस्तेज हो गये। फिर परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों सहित राजा दशरथ ने रामचन्द्र की भूरि भूरि प्रशंसा की।

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