मोह -सुमित्रानंदन पंत Moh – Sumitranand Pant छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस …
अनुभूति -सुमित्रानंदन पंत Anubhuti – Sumitranand Pant तुम आती हो, नव अंगों का शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो। बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम, सांसों में थमता स्पंदन-क्रम, तुम आती हो, अंत:स्थल …
बापू के प्रति -सुमित्रानंदन पंत Bapu Ke Prati – Sumitranand Pant तुम मांस-हीन, तुम रक्त-हीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीन, तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! …
महात्मा जी के प्रति -सुमित्रानंदन पंत Mahatma Ji Ke Prati – Sumitranand Pant निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!– जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,– गत …
समर शेष है -रामधारी सिंह दिनकर Samar Shesh hai -Ramdhari Singh Dinkar ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, …
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों -रामधारी सिंह दिनकर Ho Kaha Agnidharma Navin Rishiyon -Ramdhari Singh Dinkar कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण खोलो¸ रूक सुनो¸ विकल यह नाद कहां से …
सिपाही -रामधारी सिंह दिनकर Sipahi -Ramdhari Singh Dinkar वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ, ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न …
वातायन -रामधारी सिंह दिनकर Vatayan -Ramdhari Singh Dinkar मैं झरोखा हूँ। कि जिसकी टेक लेकर विश्व की हर चीज़ बाहर झाँकती है। पर, नहीं मुझ पर, झुका है विश्व तो …