ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी
Khwab hi tha zindagi kitni sahal ho jayegi
ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी
तुम जो गाओगे रुबाई भी ग़ज़ल हो जायेगी
इतने आईनों से गुज़रे हैं यक़ीं होता नहीं
अज़नबी सी एकदिन अपनी शकल हो जायेगी
मर्हले ऐसे भी आयेंगे नहीं मालूम था
उम्र भर की होशियारी बेअमल हो जायेगी
है बहुत मा’कूल फिर भी शक़ है मौसम पर मुझे
तज्रबा है अन्त में ग़ारत फ़सल हो जायेगी
साँस की क़श्ती ख़ुद अपना बोझ सह पाती नहीं
कोई दिन होगा कि हस्ती बेदखल हो जायेगी