शीश-मौर बाँधने लगा फागुन
Shish-mor bandne laga phagun
आमों के शीश-
मौर बाँधने लगा फागुन ।
शून्य की शिलाओं से-
टकराकर ऊब गई,
रंगहीन चाह
नए रंगों में डूब गई,
कोई मन-
वृंदावन,
कहाँ तक पढ़े निर्गुन ।
खेतों से-
फिर फैली वासंती बाँहें,
गोपियाँ सुगंधों की,
रोक रही राहें,
देखो भ्रमरावलियाँ –
कौन-सी
बजाएँ धुन ।
बाँसों वाली छाया
देहरी बुहार गई,
मुट्ठी भर धूल, हवा,
कपड़ों पर मार गई,
मौसम में-
अपना घर भूलने लगे पाहुन ।