पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं
Palke bichaye to nahi bethi
कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं!
हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी-सी है,
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी-सी है,
गगन पर बदलियाँ लहरा रही हैं श्याम-आँचल-सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं।
अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लगकर,
न जाने तारिकाएँ बाट किसकी जोहतीं जग कर,
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है,
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं!
हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़ जाते,
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते,
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!
कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे,
कहीं तुम पंथ सिर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं।