नहीं झुकता, झुकाता भी नहीं हूँ
Nahi jhukta, jhukta bhi nahi hu
नहीं झुकता, झुकाता भी नहीं हूँ
जो सच है वो, छिपाता भी नहीं हूँ
जहाँ सादर नहीं जाता बुलाया
मैं उस दरबार जाता भी नहीं हूँ
जो नगमे जाग उठते हैं हृदय में
कभी उनको सुलाता भी नहीं हूँ
नहीं आता मुझे ग़म को छिपाना
पर उसके गीत गाता भी नहीं हूँ
किसी ने यदि किया उपकार कोई
उसे मैं भूल पाता भी नहीं हूँ
किसी के यदि कभी मैं काम आऊँ
कभी उसको भुलाता भी नहीं हूँ
जो अपनेपन को दुर्बलता समझ ले
मैं उसके पास जाता भी नहीं हूँ
जो ख़ुद को स्वयंभू अवतार माने
उसे अपना बनाता भी नहीं हूँ