नाव का दर्द
Naav ka dard
मैं नैया
मेरी क़िस्मत में
लिक्खे हैं दो कूल-किनारे
पार उतारूँ
मैं सबको
मुझको ना कोई पार उतारे
जीवन की संगिनी बनी है
बहती नदिया – बहता पानी
क्या मज़ाल जो धार गह सकूँ
संग-संग बह लूँ मनमानी
कोई इस तट
बना खेवइया
उस तट कोई खड़ा पुकारे
उल्टी-सीधी लहरों से
लड़ने-भिड़ाने की नियति मिल गई
सख्त थपेड़ों की मारों से
कनपटियों की चूल हिल गई
औघट घाट लगे
तो जुटकर
छेद गिन रहे लाकड़हारे
मेरी राह धरें पानी पर
उठती-गिरती वे पतवारें
जिनको ख़ुद का पता नहीं
रह-रहकर इधर-उधर मुँह मारें
गैरों के हाथों
कठपुतली-सा
जो नाचें उठ भिनसारे
मैं नैया
मेरी क़िस्मत में
लिक्खे हैं दो कूल-किनारे