Hindi Poem of Divik Ramesh “Adeshya hote hue”,”अदृश्य होते हुए” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

अदृश्य होते हुए

 Adeshya hote hue

जानता मैं भी हूं कि

लगभग अदृश्य हो रहा हूँ

अदृश्य यूँ कौन नहीं हो रहा

न वह हवा है, न पानी ही

न पेड़ों में वह पेड़त्व ही

जगत चाचा की कौन कहे

अब तो वे भी जो कभी बेचते थे

बिक रहे हैं सौदों से

मैं तो फिर भी

लगता है महज अदृश्य हो रहा हूँ

आज न तसल्ली में तसल्ली है

न दुख में दुख

यहाँ तक कि चालाकियाँ भी अब कहाँ रहीं ढँकी-दबी

सरेआम नग्न हैं

घूम रही हैं बेईमानियाँ पेट फुलाए

चोर चौराहे पर कर रहा है घोषणा कि वह चोर है

हत्यारे को अब नहीं रही ज़रूरत छिपने की

ऐसे दृश्यबंधों में

सभ्यताओं से दूर

किसी कोने में रह रही अछूती जनजाति में बचे

बल्कि बचे-खुचे

थोड़े लिहाज-सा

ग़नीमत है

कि मैं महज अदृश्य हो रहा हूँ

वह जो एक रिश्ता था

है तो अब भी

वह जो एक ताप था

है तो अब भी

वह जो एक नाप था

है तो अब भी

यानी और भी बहुत कुछ जो कि था

है तो अब भी

पर कहाँ-कहाँ

यक़ीन मुझे भी हो रहा है

कि हो रहा हूँ अदृश्य

एक इबारत की तरह जो चमकती थी कभी

कि जो पढ़ी जा सकती थी कभी

और समझी भी

पर नही अफ़सोस मुझे तब भी

कि हूँ तो

हो रहा हूं महज अदृश्य ही

वे रचनाएँ भी तो हैं

बाक़ी है जिनका अभी पढ़ा जाना

चढ़ा जाना जबान और आँखों पर

श्रेष्ठ-जनों की

जब समय में से समय ही किया जा रहा हो अदृश्य

तब क्या बिसात है उन पेड़ों की

जिन पर पत्ते भी हैं और रंग भी

पर वही नहीं है

जिसे होना चाहिए था

तब वज़ूद क्या उन नदियों का

जिनमें जल भी है और लहरें भी

बस वही नहीं है जिसे होना चाहिए था

ग़नीमत है कि अभी है बचा मुझमें

बस वही

भले ही हो रहा हूं मैं अदृश्य

एक हल्की सी चालाकी सिखा दी गई है मुझे भी

एक ग़लत क्रियापद को मैंने भी बना लिया है हथियार

रहने को सुरक्षित

ग़नीमत है कि मुझे याद है इबारत

कि मैं हो रहा हूँ

न कि किया जा रहा हूँ

अदृश्य

 

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