प्रयाग
Prayag
१
मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग!
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,–
लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार!
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात!
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम!
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ!
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त!
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर!
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल!
‘मधु आया’, कहते हँस प्रसून, पल्लव ‘हाँ’ कह कह हिल जाते
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते!
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में!
मधु के दिन पर कितने दिन के! — आतप में तप जल जाता सब
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव!
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात!
जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता!
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ! आते थे दानी हर्ष जहाँ!
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया!
वह दुर्ग!–जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक!
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी–
क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?–
जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी–
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ’ संन्यासी!
उस पत्थर अंकित है क्या? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी!
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी–
बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी!
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम!
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी,
हे काल क्रूर, सुन! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी?
२
यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट! —
क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय!
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन!
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, —
है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास!
प्यारे प्रयाग! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला!
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में!
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज!
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज!
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम!, वाणी कल्याणी हो प्रकाम–
स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम!
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र!
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज!
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज!!