हाज़िर जवाबी
Hajir jawabi
बचपन में दौलत राम बहुत ग़रीब था, समय के साथ साथ उसने शहर में जाकर ख़ूब मेहनत की और बहुत पैसा कमाया, जैसे-जैसे लक्ष्मी मैया की कृपा होती गई, दौलत राम का घमण्ड बढ़ता गया और वो हर किसी को नीची निगाह से देखने लगा, बहुत दिन बाद वो शहर से अपने गाँव आया, दुपहर में एक बार जब वो घूमने निकला तो उसे अपने बचपन की सारी यादें ताज़ा होने लगीं, उसे वो सारे दृश्य याद आने लगे जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था, एकाएक उसका ध्यान एक बरगद के पेड़ पर पड़ा जिस के नीचे एक आदमी आराम से लेटा हुआ था, क्योंकि धूप थोड़ी तेज़ होने लगी थी इसलिए दौलत राम सीधा वहाँ पहुँचा और देखा कि उसका बचपन का साथी कन्हैया वहाँ आराम से लेटा हुआ है,
बजाए इस के कि दौलत राम अपने पुराने मित्र का हाल चाल पूछे, उस ने कन्हैया को टेढ़ी नज़र से देख कर कहा- “ओ कन्हैया, तू तो बिल्कुल निठल्ला है, न पहले कुछ करता था और न अब कुछ करता है, मुझे देख मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ,” यह सुनकर कन्हैया थोड़ा बुड़बुड़ा कर बैठ गया, दौलत राम का हालचाल पूछा और कहने लगा कि समस्या क्या है, दौलत राम के ये कहने पर कि वो काम क्यों नहीं करता, कन्हैया ने पूछा कि उस का क्या फ़ायदा होगा, दौलत राम ने कहा कि तेरे पास बहुत सारे पैसी हो जाएँगे, “उन पैसों का मैं क्या करूँगा?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया, “अरे मूर्ख, उन पैसों से तू एक बहुत बड़ा महल बनाएगा,” “क्या करूँगा मैं उस महल का?” कन्हैया ने फिर तर्क किया,
“ओ मन्द बुद्धि उस महल में तू आराम से रहेगा, नौकर चाकर होंगे, घोड़ा गाड़ी होगी, बीवी बच्चे होंगे,” दौलत राम ने ऊँचे स्वर से गुस्से में कहा, “फिर उसके बाद?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया, अब तक दौलत राम अपना धीरज खो बैठा था, वो गुस्से में झुँझला कर बोला- “ओ पागल कन्हैया, फिर तू आराम से लम्बी तान कर सोएगा,” ये सुन कर कन्हैया ने मुस्कुराकर जवाब दिया- “सुन मेरे भाई दौलत, तेरे आने से पहले, मैं लम्बी तान के ही तो सो रहा था,
” ये सुनकर दौलत राम के पास कुछ भी कहने को नहीं रहा, उसे इस चीज़ का एहसास होने लगा कि जिस दौलत को वो इतनी मान्यता देता था वो एक सीधे-साधे कन्हैया की निगाह में कुछ भी नहीं, आगे बढ़ कर उसने कन्हैया को गले लगा लिया और कहने लगा कि आज उसकी आँखें खुल गई हैं,
दोस्ती के आगे दौलत कुछ भी नहीं है, इंसान और इंसानियत ही इस जग मैं सब कुछ है,