अग्नि-संभवा
Agni Sambhava
कृष्ण ,मेरे मीत!
अग्नि संभव द्रौपदी मैं
खड़ी अविचल!
जल रही अनुताप में ,
उद्दीप्त पल-पल,
क्षुब्ध और! अशान्त!
तुम तपन झेलो ,न कोई और!
तुम शरण मेरी, न कोई और!
दौड़ आते तुम्हीं बारंबार
इस निर्वास- वन में
छोड़ अपना राजसुख- रनिवास!
धीर देने
बाँटने को भार मन का ,
प्रिय सखी के साथ!
तुम परम आत्मीय
मेरा हो न कोई और!
टेरता मन कह रहा ,
तुमसे मिले युग हो गये,
ओ,मीत मेरे!
तुम शऱण मेरी न कोई और!
बंधु प्रिय मेरे ,
सभी का एक माध्यम मै!
स्वत्व मेरा कुछ नहीं!
मैं बँटी हूँ!
जुड़ूँ किससे?
अधूरी हूँ मैं सभी के साथ!
मन से रहूं किसके पास!
पति ,परस्पर बँधे बेबस ,
एक असमंजस कि
मैं हूँ डोर!
कौन है ,जो समझ ले मेरी व्यथा को ,
एक केवल तुम!
न कोई और!
तुम शऱण मेरी, न कोई और!
मीत ,हर सामर्थ्य मेरी ,बन गई उपभोग
दाँव पर मैं और कब से चल रहा यह खेल!
वे परम गंभीर,मृदु ,संयत;
मुखर मैं ,कटु , असहनशील
सब स्वीकार!
किन्तु यह निर्लज्ज अत्याचार!
और वह क्षण दुसह दारुण भयावह
वह बीतता ही नहीं
बनता एक हाहाकार!
हो रहा अपमान औ’ उपहास
पर वे सिर झुकाये साक्षी चुपचाप,
मिथ्यादर्श की ले आड़!
उस सामर्थ्य को धिक्कार!
नीति धर्म,विवेक सब बेकार!
किसे अब तक सके कभी उबार?
सभी को रख दो ,सुरक्षित कर पिटारी बंद
खा जाये न चोट उनका धर्म पा कर वार!
इस विडंबन का कहाँ है पार!
सिर्फ़ तुमने ही उबारा!
तुम चुभन झेलो, न कोई और ,
तुम शऱण मेरी, न कोई और!
और तुम?
जो सर्वथा ही भिन्न!
जीवन -सहजता के मंत्र !
कौन से तुमने नियम या नीति मानी?
तोड़ सारी वर्जनायें
एक तुमने ही
स्वयं को साक्षी कर,
मानवी गरिमा न हो खंडित यहाँ
सब रीति मर्यादा बदल दी
और जीवन भर तुम्हीं ने ,
व्यर्थ के प्रतिबंध तोड़े,
छलों के अनुबंध तोड़े
सहज हो कर बहे युग – धारा
कि आरोपित सभी पाखंड तोड़े!
एक ही संबंध तुमसे ,
बस नहीं कुछ और!
तुम शऱण मेरी, न कोई और!
विगत और भविष्य तुम निर्बाध!
विषम ,अँधे क्षणों में लो साध,
सांत्वना के कुछ सहज उद्गार!
जब निराशा हो चरम तब तुम खड़े हो साथ
मीत मेरे , बस यही विश्वास!
नहीं दैहिक कामना कोई हमारे बीच,
और कुछ भी नहीं,
जो कुछ और!
तुम शऱण मेरी, न कोई और!
शब्द सीमित
अर्थ का विस्तार ,
तुम तक पहुँच जायेगा!
अजानी दूरियों को लाँघ
मेरा मौन भी कह बहुत जायेगा!
यही दृढ़ संबंध जो जोड़े हुये है
और कुछ भी नहीं
अपने बीच!
तुम्हीं से उन्मुख ,
न कोई और!
तुम शरण मेरी, न कोई और!
शब्द औ’संवेदना ही,
और निष्कृति भी तुम्हीं से
बस ,नहीं कुछ और!..
तुम परम आत्मीय, सतत समीप ,
तुम तपन झेलो, न कोई और!
तुम शरण मेरी, न कोई और!