Hindi Poem of Pratibha Saksena “  Aaj bohil jindagi ke saansa”,” आज बोझिल जिन्दगी की साँस” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

आज बोझिल जिन्दगी की साँस

 Aaj bohil jindagi ke saans

 

आज बोझिल जिन्दगी की साँस, तू चुपचाप मत चल!

गन्ध व्याकुल कूल सरि के,

वन वसन्ती फूल महके!

वह दहकती लाल आभा

ले गगन के गान गहके!

बावली मत कूक कोकिल, वेदना के बोल विह्वल!

आज जादू डालती सी,

चाँदनी की रूप-ज्योती

और मन को सालती सी कुछ विगत की बात बोती,

आज चंचल हो उठे ये प्राण फिर उन्माद जागा,

साँवली सी रात भीगी जा रही उर में समाती!

हो रहे साकार सोये गीत राग-पराग में पल!

नींद पलकों से उडाती,

जागते सपने सजाती,

आ गई ये कामनाओं से भरी सी

रात मंथर पग उठाती!

लुप्त हुये विराग सारे, राग भर अ्नराग पागल!

आज के दिन तो व्यथा की तान आकुल हो न फूटे,

आज तो कोई विषमता जिन्दगी का बल न लूटे!

आज हर इन्सान के उर में यही हो एक सा स्वर,

देख धरती पर किसी की आँख आँसू में न डूबे!

एक दिन तो छँट चले नैराश्य का छाया तिमिर दल!

आज गिरते से उठा लो,

बाँह फैला कर बुला लो,

दूरियाँ सारी मिटा कर

कण्ठ से अपने लगा लो!

राह में पिछड़े हुओं को साथ फिर अपने लिये चल!

क्या कभी ऐसा न होगा..

कल्पनामय आज तो जीवन बना,

पर जिन्दगीमय कल्पना हो क्या कभी ऐसा न होगा!

एक पग आगे बढा तो शूल पथ के मुसकराये,

एक क्षण पलगें खुलीं तो हो गये सपने पराये,

एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा,

एक ही पथ में समूचे विश्व के अभिशाप छाये!

स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें,

चेतनामय स्वप्न हों ये, क्या कभी ऐसा न होगा!

एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया,

एक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया,

एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा,

जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया!

इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में,

वेदना ही शान्ति बन जाये कभी ऐसा न होगा!

चाह से है राह कितनी दूर भी मैने न पूछा,

क्या कभी मँझधार को भी कूल मिलता है न बूझा,

किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में,

छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका!

ये भटकते ही रहे उद्भ्रान्त से मेरे चरण

पर भ्रान्ति में ही बन चले पथ क्या कभी ऐसा न होगा!

अब कभी बरसात रोती कभी मधुऋतु मुस्कराती,

कभी झरती आग नभ से या सिहरती शीत आती,

सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्दगी का,

किन्तु मैं रुकने न पाती, किन्तु मैं जाने न पाती

आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में

भूल कर भी मैं स्वयं को पा सकूँ ऐसा न होगा!

 एक दिन पाँओं तले धरती न होगी!

याद आती है मुझे तुमने रहा था,

एक दिन पाँओं तले धरती न होगी!

जग कहेगा गीत ये जीवन भरे हैं,

ज़िन्दगी इन स्वरों में बँधती न होगी!

आज पाँओं के तले धरती नहीं है,

दूर हूँ मैं एक चिर-निर्वासिता-सी,

काल के इस शून्य रेगिस्तान पथ पर,

चल रही हूँ तरल मधु के कण लुटाती!

उन स्वरों के गीत जो सुख ने न गाये,

स्वर्ग सपनों की नहीं जो गोद खेले,

हलचलों से दूर अपने विजन पथ पर

छेड़ना मत विश्व, गाने दो अकेले!

कहां इंसां को मिला है वह हृदय,

जिसको कभी भी कामना छलती न होगी

याद फिर आई मुझे तुमने कहा था,

एकदिन पाँओं तले धरती न होगी

 

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