दु:ख का वह जीवित स्मारक
Dukh ka vah jivit smarak
अपने ग्राम्य निवास के दिनों में मैं पुरातन देहाती में प्राय: जाया करता था। वहां के सत्संग में एक बूढ़ी जर्जर स्त्री मात्र ऐसी थी, जो सच्चे ईसाई की विनम्र तथा प्रणत धर्म-निष्ठा का पूर्ण अनुभव करती जान पड़त थी। वह आयु और दुर्बलताओं के बोझ से झुक गई थी। उसमें नितांत दीनता से अधिक अच्छी किसी चीज की रेखाएं भी थीं। उसकी मुखाकृति पर गौरव मंडराता दीखा रहा था। यद्यपि उसकी पोशाक बिल्कुल ही सादी थी, किन्तु वह बहुत स्वच्छ थी। जिसे कुछ सम्मान भी प्रदान किया गया था, क्योंकि वह गांव के दीनों के बीच न बैठकर वेदिका की सीढ़ियों पर अकेली बैठी हुई थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह समस्त प्रेम, समस्त मैत्री और समस्त समाज को सहन कर भी जीवित है और अब उसके लिए स्वर्ग की आशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा है। जब मैंने दुर्बलतापूर्वक उसे उइते और अपनी जरा-ग्रस्त काया को झुकाते देखा, तब देखा कि वह अभ्यास-वश अपनी प्रार्थना-पुस्तक खोल रही है, किन्तु उसके जीर्ण कम्पित हाथ तथा दुर्बल दृष्टि आंखें उसे पढ़ने नहीं दे रही है।, यद्यपि वह उसे कंठग्र है, तब मैंने अनुभव किया कि उस अकिंचन महिला की भग्नवाणी, क्लर्क की आवाज, बाजे की ध्वनि तथा भजन-मंडली के गायन से पहले ही स्वर्ग के निकट पहुंच रही है। एक दिन सवेरे मैं वहां बैठा हुआ दो मजदूरों को देख रहा था, जो कब्र खोदने में लगे हुए थें इस काम के लिए उन्होंने गिरजे के अहाते में एक सबसे दूरस्थ और उपेक्षित कोना चुना था। उसके आसपास कितनी ही अनाम समाधियां थीं, जिनसे मालूम होता था कि अकिंचन और बंधु-बांधव-रहित जन वहां पृथ्वी के गर्भ में ठूंस दिये गए हैं। मुझे बताया गया कि नव-निर्मित कब्र एक दरिद्र विधवा के एकमात्र पुत्र के लिए है। जब मैं सांसारिक श्रेणियों के विभेद पर जो, इस प्रकार भस्मावशेष तक फैला हुआ था, चिन्तन कर रहा था, तब घंटा-ध्वनि ने सूचित किया कि अर्थी आ रही है। वह गरीबों की अंत्येष्टि थी, जिसमें अहंकार का कोई चिन्ह नहीं होता। अर्थी बड़ी ही सादी चीजो से बनी हुई थी और उसमें पर्दे आदि का नाम भी नहीं था। उसे चन्द ग्रामवासी उठाये हुए थें। गिरजे का उत्खनक आगे-आगे शुष्क उदासीनता की मुद्रा में चल रहा था। प्रदर्शित व्यथा की भूषा में कोई कृत्रिम शोक-कर्त्ता वहां नहीं थे, किन्तु एक सच्चा शोक-कर्त्ता वहां अवश्य था। वह एक बुढ़िया थी, जो शव के पीछे दुर्बलता के कारण लड़खड़ाती चल रही थी। यह मृतात्मा की बृद्धा मां थी, वहीं गरीब बुढ़िया, जिसे मैने वेदिका की सीढ़ियों पर बैठे देखा था। एक गरीब स्त्री उसे सहारा और सांत्वना देती चल रही थी। पास-पड़ोस के कुछ गरीब आदमी साथ में थे। जब शव-यात्रा का जुलूस कब्र के पास पहुंच गया तब गिरजा के द्वार मंडप से पादरी बाहर निकला—लम्बा चोंगा पहने तथा प्रार्थना-पुस्तक हाथ में लिये हुए एक क्लर्क उसक साथ था। अन्तिम धर्म-क्रिया दानखाते जैसी थी। मृतक अकिंचन था और उसके घर जो बच गई थी—मां, वह कौड़ी-कौड़ी को मोहताज थी। इसीलिए रीति का पालन तो हुआ, परन्तु भावना-रहित और शुष्क ढंग पर।
मैं कब्र के पास गया। ताबूत जमीन पर रखा था। उस पर मृतक का नाम और आयु अंकित थी—जार्ज सामर्स उम्र २६ वर्ष। अभागी मां की जीर्ण हाथ जुड़े हुए थे, जैसे वह प्रार्थना में बैठी हो, परन्तु उसके शरीर के क्षीण कम्पन और ओठों की ऐंठती गति से मैं समझ सका कि वह मां के हृदय की व्याकुलता के साथ अपने पुत्र का अंतिम अवशेष देख रही थी। धरती के अन्दर ताबूत को उतारने की तैयारियां होने लगीं। वह दौड़-धूप और हलचल मच गई, तो व्यथा और अनुराग की भावनाओं को बड़ी कठोरता से झकझोर देती है। जब आदमी रस्सी लेकर ताबूत को नीचे उतारने आये तो मां ने अपने हाथ मरोड़ लिये और व्यथा की यंत्रणा से फूट पड़ी। ज्योंही लाश उन्होंने नीचे उतारी, रस्सियों की रगड़ के शब्द सुनकर मां कराह उठी, किन्तु जब किसी घटना के कारण रुकावट आने से ताबूत टकरा गया तो मां की समस्त कोमलता फूट पड़ी जेसे उस आदमी को क्षति पहुंची हो, जो सांसारिक व्यथा की पहुंच से बाहर जा चुका हो। अब मुझसे और नहीं देखा गया। मेरा हृदय मानो गले में आ गया, मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं। मुझे लगा, मैं वहां खड़ा रहने और मां की यंत्रण का दृश्य अलसभाव से देखने में कोई बर्बर अभिनय कर रहा होऊं। मैं गिरजे के अहाते के दूसरे भाग में चला गया और वहां तबतक रहा जबतक कि शव-यात्रा की मंडली बिखर नहीं गई। जब मैंने देखा कि मां के लिए इस धरती पर जो कुछ प्रिय था, उसे अपने पीछे छोड़कर वह बड़ी व्यथा के साथ कब्र से विदा हो रही है और नीरवता तथा दरिद्रता की ओर लौट रही है तो मेरा हृदय रो पउ़ा। मैं सोचने लगा कि इनके आग्र धनिकों की विपदा क्या है!उनके पास सांत्वना देने वाले मित्र हैं, भुलाने वाले सुख हैं, उनके दुखों को मोड़ने और बंटाने वाली दुनिया है। उसके सामने तरुणों के शोक क्या हैं? उनके विकासशील मस्तिष्क शीघ्र ही घाव को भर देते हैं। किन्तु उन गरीबों का शोक, जिनके पास सांत्वना के बाहरी साधन नहीं, है; उन बृद्धों का शोक, जिनका जीवन अपने अच्छे-से-अच्छे रुप में भी एक शिशिर के दिवस जैसा है; एक विधवा का दुख, जो वृद्ध है, अकेली है अकिंचन है, जो अपने बुढ़ापे की एकमात्र सांत्वना अपने पुत्र को खोकर रो रही है, ये निश्चय ही ऐसे शोक, ऐसे दु:ख हैं, जिनमें हम सांत्वना की अक्षमता का अनुभव करते है। कुछ देर बाद मैं गिरजे के प्रांगण से बाहर आया। घर की ओर लौटते समय मुझे वह औरत मिल गई, जो बुढ़िया को सांत्वना देने का काम कर रही थी। वह मां को उसके निर्जन आवास पर पहुंचा कर आ रही थीं उसने बताया कि मृतात्मा के मां-बाप उस गांव में बचपन से रहते आये थे। उनकी बहुत ही साफ-सुथरी कुटीर थी और वे बड़े मान-सम्मान और आराम के साथ जीवन बिता रहे थे। उनके एक ही पुत्र था, जो बड़ा ही सुदर्शन, शीलवान, दयालु और माता-पिता कि प्रति कर्त्तवयशील था। दुर्भाग्य से दुष्काल और कृषि-संकट के एक साल लड़के ने प्रलोभन में आकर पास की नदी में चलनेवाली नौका पर नौकरी कर ली। वहां काम करते अधिक दिन नहीं हुए कि जलदस्युओं का गिरोह उसे पकड़कर समुद्र की ओर ले गया। माता-पिता को इसकी सूचना-मात्र मिली, उससे अधिक पता नहीं चला। उनका मुख्य अवलम्ब छिन गया। पिता पहले से ही दुर्बल थे, उनका दिल बैठ गया, वह उदास रहने लगे और एक दिन मौत की गोद में सो गये। वृद्धावस्था और दुर्बलता के बीच विधवा अकेली रह गई। वह अपनी जीविका नहीं चला पाई। सदावर्त पर रहने लगी। एक दिन वह अपने खाने के लिए बगीचे में कुछ तरकारियां तोड़ रही थी कि सहसा उसके घर का दरवाजा किसी ने खोल दिया। आगन्तुक समुद्री पोशाक पहने था और सूखकर कांटा हो गया था, मुर्दे की तरह पीला पड़ गया था। उसकी मुद्रा ऐसी थी, जैसी बीमारी और कष्ट से टूटे आदमी की होती है। उसकी निगाह बुढ़िया पर पड़ी और वह झपट कर उसके सामने जाकर घुटनों के बल बैठ गया और बच्चे की तरह सुबकने लगा। बेचारी बुढ़िया शून्य एवं अस्थिर नयनों से उसे ताक रही थी।
‘‘ओ मेरी प्यारी अम्मा, क्या तुम अपने बेटे को नहीं पहचान रही हो? अपने गरीब बेटे जार्ज को?’’ वह पहले के श्रेष्ठ लड़के का ध्वंसावशेष मात्र था, जो घावों, बीमारियों और विदेशी कारावासों के प्रहारों के खंडित, अपने क्षयित अंगों को घर की ओर घसीटते हुए बचपने के दृश्यों के बीच विश्राम पाने आया था। वह उसे शैया पर पड़ गया, जिस पर उसकी विधवा मां ने जाने कितनी ही विद्राहीन रातें बिताई थीं। वह फिर उससे उठ नहीं सका। अभागा जार्ज अनुभव कर चुका था कि ऐसी बीमारी में पड़े रहना, जहां कोई सांत्वना देने वाला नहीं है—अकेले, कारागार में, जहां कोई उससे मिलने आने वाला नहीं है, कैसा होता है। अब वह अपनी मां का आंखो से ओझल होना सहन नहीं कर सकता था। बेचारी मां उसकी शैया के पास घंटों बैठी रहती। कभी-कभी जार्ज स्वप्न से चौककर इधर-उधर देखन लगता और तबतक देखता रहता जबतक मां को अपने ऊपर झुके हुए न देख लेता। तब वह मां का हाथ अपने हाथ में ले लेता, उसे अपनी छाती पर रखता और एक बच्चे की शांति के साथ गहरी नींद में सो जाता। इसी तरह वह मर गया। दूसरे रविवार को जब मैं गिरजे में गया तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि गरीब बुढ़िया लड़खड़ाती हुई उसी तरह वेदिका की सीढ़ियों पर अपने स्थान की ओर बढ़ी जा रही है। उसने कुछ ऐसी चीज पहनने की चेष्टा की थी, जो अपने पुत्र के प्रति शोकार्त्तता की द्योतक हो। पवित्र अनुराग और नितान्त अकिंचनता के बीच के इस संघर्ष से अधिक करुणा की और क्या बात हो सकती थी? कुछ धनी सदस्यों ने उसकी कहानी सुनकर द्रवित हो उसकी सिथति को सुखदायी बनाने और उसका दुख हल्का करने का प्रयत्न किया, किन्तु यह सब कब्र की ओर बढ़ते हुए चन्द कदमों को सरल बनाना भर था। एक या दो रविवारों की अवधि में ही वह गिरजे के अपने आसन पर अनुपस्थित पाई गई। उसने शांतिपूर्वक अपनी अंतिम सांसें छोड़ दीं और जिन्हें वह प्यार करती थी, उनसे मिलने को उस लोक में चली गई, जहां शोक का कहीं पता नहीं और जहां मित्रों से कभी बिछोड़ नहीं होता।
समाप्त