अनुत्तरित प्रश्न – राकेश खंडेलवाल
Anuttarit prashan – Rakesh Khandelwal
जो अनुत्तरित रहा अभी तक, तुमने फिर वह प्रश्न किया है
अब मैं उत्तर की तलाश में निशि दिन प्रश्न बना फिरता हूँ
क्या है उचित और अबुचित क्या, फ़िक्र किये बिन देखे सपने
सपने लेकिन सपने ही थे, निमिष मात्र भी हुए न अपने
दिवा स्वप्न की उम्र न पल भर, बनने से ही पूर्व बिगड़ते
धुंधले सभी, नयन पाटल पर किसी चित्र में पाये न ढलने
आँखों के मरुथल को अब तो आदत हुई शुष्क रहने की
आँसू कोई तिरे न, इससे पलक झपकते भी डरता हूँ
दीपक की अभिशापित लौ में पिघल गईं मेरी संध्यायें
आवारा गलियों में भटकीं चन्दा वाली सभी निशायें
पूजा में झुलसे यौवन के बनजारे यायावर पग को
मंज़िल का पथ दिखलाने में अब तक असफ़ल रहीं दिशायें
कुंभकार के चाक रखे हैं मेरे दिवस मॄत्तिका जैसे
जैसे कोई अंगूठे चाहें, वैसे शिल्पों में गढ़ता हूँ
भरते हुए शून्य अंतर में छलना खनका रही चूड़ियाँ
और बढ़ाती हुई भावनाओं से मन के मध्य दूरियाँ
सम्बन्धों की रीती गठरी रह रह याद दिला जाती है
किस पूँजी की बातें करती थीं बचपन में बड़ी बूढ़ियाँ
अस्ताचल के सिन्धु तीर पर खड़ा देख ढलते सूरज को
लौट सकेगा क्या कल फिर यह, रह रह कर सोचा करता हूँ