ईस्ट इन्डिया कम्पनी का अंत
East India Company ka Ant
1857 के विद्रोह की असफलता के परिणामस्वरूप, भारत में ईस्ट इन्डिया कंपनी के शासन का अंत भी दिखाई देने लगा तथा भारत के प्रति ब्रिटिश शासन की नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके अंतर्गत भारतीय राजाओं, सरदारों और जमींदारों को अपनी ओर मिलाकर ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के प्रयास किए गए। रानी विक्टोरिया के दिनांक 1 नवम्बर 1858 की घोषणा के अनुसार यह उद्घोषित किया गया कि इसके बाद भारत का शासन ब्रिटिश राजा के द्वारा व उनके वास्ते सेक्रेटरी आफ स्टेट द्वारा चलाया जाएगा। गवर्नर जनरल को वायसराय की पदवी दी गई, जिसका अर्थ था कि वह राजा का प्रतिनिधि था। रानी विक्टोरिया जिसका अर्थ था कि वह सम्राज्ञी की पदवी धारण करें और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राज्य के आंतरिक मामलों में दखल करने की असीमित शक्तियां धारण कर लीं। संक्षेप में भारतीय राज्य सहित भारत पर ब्रिटिश सर्वोच्चता सुदृढ़ रूप से स्थापित कर दी गई। अंग्रेजों ने वफादार राजाओं, जमींदारों और स्थानीय सरदारों को अपनी सहायता दी जबकि, शिक्षित लोगों व आम जन समूह (जनता) की अनदेखी की। उन्होंने अन्य स्वार्थियों जैसे ब्रिटिश व्यापारियों, उद्योगपतियों, बागान मालिकों और सिविल सेवा के कार्मिकों (सर्वेन्ट्स) को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भारत के लोगों को शासन चलाने अथवा नीतियां बनाने में कोई अधिकार नहीं था। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश शासन से लोगों को घृणा बढ़ती गई, जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्द्र और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारवादियों के हाथों में चला गया। इस दौरान राष्ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक संकल्पना भी, एक सामान्य विदेशी अत्याचारी/तानाशाह के विरूद्ध संघर्ष की आग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाती रही।
राजा राम मोहन राय (1772-1833) ने समाज को उसकी बुरी प्रथाओं से मुक्त करने के उद्देश्य से 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने सती, बाल विवाह व परदा पद्धति जैसी बुरी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए काम किया, विधवा विवाह स्त्री शिक्षा और भारत में अंग्रेजी पद्धति से शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया। इन्हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश शासन द्वारा सती होने को एक कानूनी अपराध घोषित किया गया।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) जो रामकृष्ण परमहंस के शिष्य/अनुयायी थे, ने 1897 में वेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। उन्होंने वेदांतिक दर्शन की सर्वोच्चता का समर्थन किया। 1893 में शिकागो (यू एस ए) की विश्व धर्म कांफ्रेस में उनके भाषण ने, पहली बार पश्चिमी लोगों को, हिंदू धर्म की महानता को समझने पर मज़बूर किया।