Ancient India History Notes on “Mysore War III”, “मैसूर युद्ध तृतीय” History notes in Hindi for class 9, Class 10, Class 12 and Graduation Classes

मैसूर युद्ध तृतीय

Mysore War III

तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई. तक लड़ा गया था। जब गवर्नर-जनरल लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने टीपू सुल्तान का नाम ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मित्रों की सूची से हटा दिया। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई. में हैदर अली और 1784 ई. में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई. में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भू-भागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे, जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे हैं। अंग्रेज़ों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई. में अचानक ट्रावनकोर (त्रिवंकुर) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला। अंग्रेज़ों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा और निज़ाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली, कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई. तक चलता रहा।

टीपू सुल्तान का प्रतिरोध

इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। 1790 ई. में तीन अंग्रेज़ी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ीं, उन्होंने डिंडीगल, कोयम्बतूर तथा पालघाट पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्त्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वंय लॉर्ड कार्नवालिस ने, जो गवर्नर-जनरल भी था, दिसम्बर 1790 ई. में प्रारम्भ हुए अभियान का नेतृव्य अपने हाथों में ले लिया। वेल्लोर और अम्बर की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिसने मार्च 1791 में. में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टनम की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वंसक भू-नीति के कारण अंग्रेज़ों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पड़ा।

अंग्रेज़ों की सफलता

तीसरा अभियान, जो 1791 ई. की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेज़ी सेनाओं का नेतृव्य करते हुए कार्नवालिस ने पुन: टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और 1792 ई. में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंगपट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की ब्राह्म प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जाने पर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च 1792 ई. में श्रीरंगपट्टनम की सन्धि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ।

राज्य का बंटवारा

इस सन्धि के अनुसार टीपू सुल्तान ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेज़ों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीन मित्रों (अंग्रेज़-निज़ाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेज़ों ने डिंडीगल, बारा महाल, कुर्ग और मलावार अपने अधिकार में रखकर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रों को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग के द्वार थे। मराठों को वर्धा (वरदा) और कृष्णा नदियों व निज़ाम को कृष्णा पनार नदियों के बीच के भू-खण्ड मिले।

 

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