बलराज साहनी
Balraj Sahani
साहित्य, कला संस्कृति, पत्रकारिता, और सिनेमा में सामांतर रूप से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले एक उम्दा कलाकार बलराज साहनी जिनपर दर्शाया गीत
“ए मेरी जोहरा जंबी” आज भी सबकी जुबा पर जिन्दा है। फिल्मों के इस मशहूर कलाकार का जीवन इंद्रधनुषी रंगो की तरह है, जिसमें कार्य योजना के अनेक भाव विद्यमान हैं। बलराज का परिवार आर्यसमाजी था। पिता हरबंस लाल का अच्छा खासा व्यापार था। 1 मई 1913 को रावलपिंडी में बलराज का जन्म हुआ था। हालांकि बचपन में शुरुवाती नाम युद्धिष्टर रखा गया था लेकिन उनकी फूफी ठीक से उनका नाम नही ले पाती थी। उन दिनों आर्यसमाजी परिवारों के बच्चों के नाम हिन्दु देवमाला के अनुसार रखने का चलन था।
युधिष्टर की जगह लोग उन्हे रजिस्टर बुलाने लगे तो विवशतः बालक का नाम बलराज साहनी रखना पङा। पिता हरबंस लाल ने बलराज का दाखिला गुरुकुल में करा दिया लेकिन वहाँ बलराज को धर्म के आधार पर पढना पसंद नही आ रहा था तो एक दिन हिम्मत करके पिता जी से कह दिया कि मैं गुरुकुल में नही पढुंगा। पिता ने नाराजगी जताई लेकिन बलराज का दाखिला डीएवी में करवा दिया। यहीं से बलराज नाटक इत्यादि में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने लगे थे। जब 7वीं में पढते थे तब उन्होने एक हस्तलिखित पत्रिका भी निकाली थी। मैट्रिक पास करने के बाद बलराज डीएवी कॉलेज में पढने लगे जहाँ संस्कृत और दर्शन शास्त्र अनिवार्य विषय थे। उन दिनों अंग्रेजी के शिक्षक जसवंत राय का उनपर विशेष प्रभाव था। कॉलेज के दौरान बलराज का दृष्टीकोंण कुछ बदला और उनपर देशभक्ति का नशा चढने लगा था।
भगत सिंह को जब फांसी दी गई तो उनको बहुत खराब लगा। उन्होने भगत सिंह पर अंग्रेजी में एक कविता लिखी। प्रथम श्रेणी में पास होने के बाद बलराज लाहौर पढाई करने के लिये जाना चाहते थे। लेकिन पिता चाहते थे कि वे लंदन में ऑफिस कायम करें। बहरहाल बलराज को कॉमर्स में कोई दिलचस्पी नही थी और उन्होने गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला लिया जहाँ चार साल में बीए तथा एम ए अंग्रेजी में करके पढाई पूरी की। इसी दौरान वहाँ वे उर्दु में कविताए भी लिखने लगे थे। कई नाटकों में अभिनय भी किये, जैसे कि- कार्ल कोपेक का मशहूर नाटक आर. यू. आर. इत्यादि। यहिं पर बलराज को क्लासिकल संगीत के साथ पश्चिम संगीत में भी दिलचस्पी हो गई थी। कुछ समय पश्चात बलराज के छोटे भाई भीष्म साहनी भी लाहौर आ गये थे और दोनो भाई साथ-साथ रहते थे।
1934 में अपने घर रावलपिंडी वापस आकर पिता के कारोबार में हाँथ बंटाने लगे। कारोबार को बढाने के उद्देश्य से बम्बई गये लेकिन वहाँ बस सैर सपाटा किया और व्यापार में घाटा करा कर वापस आ गये। उन्ही दिनों उनकी सगाई जसवंत राय की छोटी बहन दमयंती से तय हुई। बलराज साहनी ने जसवंत राय से साफ-साफ कह दिया कि वे अपने रिश्ते की बहन संतोष को चाहते हैं और उनसे विवाह करना चाहते हैं। जसवंत राय को बलराज की साफगोई बात बहुत अच्छी लगी लेकिन उन्होने समझाया कि हुन्दुओं में ऐसे रिश्ते नही होते। जसवंत राय की बात बलराज के लिये पत्थर की लकीर थी लिहाजा 6 दिसम्बर 1936 को उनकी शादी दमयंती के साथ हो गई। 1937 में बलराज का खानदान ग्रीष्म अवकाश के लिये श्रीनगर शिफ्ट हो गया था। यहाँ उन्होने अंग्रेजी में साहित्यिक पत्रिका निकाली। यहीं पर उनकी मुलाकात मशहूर शायर मजहूर से हुई और जब बलराज फिल्मी दुनिया में रम गये थे तो उन्होने मजहूर पर एक फीचर फिल्म भी बनाई थी। श्रीनगर प्रवास के दौरान बलराज की मुलाकात भोनानी से हुई जो उस समय एक फिल्म “हिमालय की बेटी” बना रहे थे। वे बलराज से भी इसमें अभिनय करवाना चाहते थे लेकिन तब बलराज को फिल्मों में काम करने का मन नही था। बलराज स्वयं को एक कवि और साहित्यकार के रूप में स्थापित करना चाहते थे। श्रीनगर प्रवास के दौरान ही बलराज की मित्रता मशहूर एक्टर डेविड से हो गई थी। कश्मीर में ही बलराज ने अपने कश्मीरी दोस्तों के साथ मिलकर जेम्स फ्लेकर का अंग्रेजी नाटक यासमीन का मंचन किया था।
श्रीनगर से जब बलराज सपरिवार वापस रावलपिंडी पहुँचे तो उन्हे वहाँ का माहौल रास नही आया और अपने पिता जी से कह दिया कि मैं व्यापार नही कर सकता मैं कुछ और करना चाहता हूँ इसलिये घर छोङकर जा रहा हूँ तथा दमयंति को भी साथ ले जा रहा हूँ। बलराज की इस बात से पिता हरबंस लाल और माँ लक्ष्मी को बहुत दुःख हुआ। पिता ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन बलराज की जिद्द के आगे उन्हे हथियार डालना पङा। हालांकी पिता हरबंस लाल की चिंता लाजमी थी क्योंकि बलराज के काम का और शहर का भी तय नही था कि कहाँ जायेंगे। फिर भी उन्होने लगभग सभी शहरों में अपने दोस्तों को खत भेज दिये थे कि, यदि बलराज उनसे मिले तो उसकी हर संभव सहायता करना। जिस दिन बलराज घर से जा रहे थे उस दिन हंसराज दर्जनों पोस्टकार्ड बलराज को देते हुए बोले कि अपनी सलामती का ये एक-एक पोस्टकार्ड हर सप्ताह पोस्ट कर देना। हंसराज उसमें घर का पता और संदेश भी लिख दिये थे, उन्होने लिखा था- पूज्य पिताजी, भगवान की दया से मैं और दमयंती बिलकुल कुशलता से हैं। हमारी तरफ से रत्ती भर भी चिंतित न रहें। आपका चहेता बेटा बलराज.
घर से निकल कर बलराज का पहला पड़ाव लाहौर था। वहाँ उन्होने मंडे मॉर्निंग नामक साप्ताहिक पत्र की शुरुवात की। लेकिन इस क्षेत्र में उन्हे निराशा ही हांथ लगी। लाहौर के बाद बलराज कलकत्ता पहुँचे, वहाँ उनकी लेखनी का काम कुछ अच्छा चलने लगा। सचित्र भारत में उनकी रचनायें प्रकाशित होती थीं जिससे आमदनी शुरु हो गई थी। वहीं उन्हे पता चला की शांति निकेतन में हिंदी टीचर की जगह खाली है और वे वहाँ 40 रूपये मासिक आय की वो नौकरी करने लगे। उन दिनों दमयंती गर्भवती थी। कुछ दिनों की नौकरी के बाद वे दोनो वापस रावलपिंडी आ गये। दमयंती और बलराज उन दिनों खादी के कपङे पहनते थे। शांति निकेतन में रहते हुए बलराज ने कई कहानियां लिखी जो सचित्र भारत में प्रकाशित हुई।
शांति निकेतन में उन्होने बर्नाड शा के नाटक आर्म्स एण्ड द मैन का मंचन किया। वहीं एक बार रविन्द्र नाथ टैगोर ने उन्हे बुलाकर कहा कि तुम पंजाबी हो तो तुम अपनी भाषा में रचना क्यों नही लिखते। उत्तर देते हुए बलराज ने उनसे ही प्रश्न कर दिया कि, आप अंग्रेजी में क्यों लिखते हैं। तब रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा कि, मैं अंग्रेजी में नही लिखता ये ट्रांसलेट करता हुँ वो भी एक सीमा तक। हालांकि बलराज के ज़हन में उनकी बात कम समझ में आई किन्तु वे बहुत खुश थे कि रविन्द्र नाथ टेगोर से उनकी बात हुई। शांति निकेतन में बलराज के दिन अच्छे बीते थे। वहीं रहते हुए उन्हे एक बार ऑल इंडिया के अधिवेशन में शांति निकेतन की ओर से स्टाल लगाने का अवसर मिला। वहीं बलराज को वर्धा में जाकर नई शिक्षा के कार्यलय में काम करने का प्रस्ताव मिला। बलराज रविन्द्र नाथ से आज्ञा लेने गये, रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा कि यहाँ तो शिक्षक मिल जायेंगे तुम वर्धा जाओ वहाँ तुम्हे यहाँ से ज्यादा पैसे मिलेंगे। इस तरह बलराज शांति निकेतन से वर्धा पहुँच गये। वहाँ बलराज से मिलने उनके छोटे भाई भीष्म साहनी आये, जिसे पिता हरबंस लाल ने बलराज का हालचाल लेने के लिये भेजा था। दमयंती ने अपने देवर को वर्धा के नियम कानून के बारे में बताया। भीष्म साहनी का मन गाँधी जी से मिलने का किया तो सुबह के समय उनसे मिलने का समय तय हुआ जब गाँधी जी पूरे आश्रम का चक्कर लगाते थे। बलराज ने गाँधी जी का एक दिलचस्प अहिंसा वाला किस्सा भीष्म को बताया, यदि गाँधी जी के बहुत करीब कोई आता है या ज्यादा समय तक इंटरव्यु लेता है तो उनके साथ एक बहुत बदबुदार चलने वाला व्यक्ति उनके पास आ जाता है, जिससे बातचीत करने वाला व्यक्ति खुद ही पीछे हट जाता।
अगले दिन सुबह चलते चलते ही बलराज ने गाँधी जी से अपने भाई भीष्म का परिचय करा दिय़ा। सेवाग्राम में बलराज की मुलाकात ऑल इंडिया के डयरेक्टर लॉयनल फिल्डन से हुई। लॉयल को बलराज की आवाज बहुत पसंद आ गई। जब लॉयल की मुलाकात गाँधी जी से हुई तो बात ही बात में लॉयल ने बलराज को इंग्लैंड ले जाने का जिक्र छेङ दिया। गाँधी जी से अनुमती मिलने पर बलराज इंग्लैंड चले गये हालांकी इंग्लैंड जाने से पहले वे रावलपिंडी अपने परिवार से मिलने गये। इंग्लैंड में नौकरी करने के पक्ष में उनके माता-पिता न थे। छोटे भाई भिष्म ने तो यहाँ तक कह दिया कि आप खादी छोङकर अंग्रेजी कपङा कैसे पहन सकते हैं। गाँधी जी के साथ रहने के बावजूद आप इस नौकरी को कैसे कर सकते हैं। बलराज ने अपने भाई को समझाया कि अंग्रेजों के खिलाफ होना अलग बात है और बी.बी.सी में काम करना अलग। बहरहाल वाद-विवाद के बावजूद बलराज, दमयन्ती के संग लंदन चले गये। उनकी माँ रेडियो पर उनकी आवाज बराबर सुनती थी। घर का माहौल फिलहाल पहले जैसा खुशनुमा नही था, मानो बलराज सबकी हँसी अपने साथ ले गये हों। किसी तरह चार साल का वक्त गुजरा और बलराज वापस भारत आये। बलराज बदल चुके थे वे वापस खादी के कपङे पहनने लगे थे और पहले से ज्यादा संजीदा हो गये थे। उनका व्यवहार ऐसा लगता था कि अब वे कुछ काम नही करेंगे। कुछ समय पश्चात उन्हे ऑल इंडिया से रेडियो की ओर से प्रबंधक के पद हेतु पेशकश आई किन्तु बलराज ने इसे अस्वीकार कर दिया। हरबंश लाल को ये निर्णय बिलकुल पसंद नही आया। वास्तविकता ये थी कि बलराज कुछ निर्णय नही कर पा रहे थे कि क्या करना चाहते हैं। रावलपिंडी में रहने के बाद अचानक एक दिन उन्होने एलान कर दिया कि वे बंबई जा रहे हैं। वहाँ उन्हे एक फिल्म में अभिनय करने का ऑफर आया है। घर में कोहराम मच गया कि इतना अच्छा कारोबार और ऑल इंडिया का ऑफर छोङकर एक्टिंग करने जाना कहाँ की बुद्धीमानी है। पिता को लगा एक प्रतिष्ठित परिवार का लङका जिसकी बेहतरीन शिक्षा आर्यसमाजी वातावरण में हुई है। उसका इस तरह फिल्मों में काम करना सही नही है।
कहते हैं विधी का लिखा कोई मिटा नही सकता। आखिर संमपन्नता और आराम की दुनिया को छोङकर बलराज मुंबई आ गये और यहीं से उनका संर्घष का दौर शुरु हुआ। पिता हरबंस लाल अपने बेटे की खोज खबर बराबर लेते रहते थे और मदद को भी तैयार रहते थे। लेकिन बलराज को इस क्षेत्र में अपना मुकाम बनाने का जूनून सवार हो गया था। हालांकि उनका कहना है कि, जब वे कैमरे के सामने जाते थे तो बहुत नर्वस हो जाते थे। घर चलाने के लिये उनकी पत्नी दमयन्ती फिल्मों में काम करने लगी थीं। घर और काम के बोझ की वजह से वो अपना ध्यान बराबर नही रख पाती थीं। धरती के लाल की शुटिंग के दौरान कमजोरी की वजह से 29 अप्रैल 1947 को ऐसी गिरीं की वापस दुबारा उठ नही सकीं और ईश्वर को प्यारी हो गईं। उस समय परीक्षत और शबनम बहुत छोटे थे। संघर्ष का दौर बरकरार था। इसी बीच उन्होने परिवार वालों के खिलाफ जाकर अपने पहले प्रेम संतोष से विवाह कर लिया। बच्चों को दिल्ली हॉस्टल में पढने के लिये भेज दिया और दिन रात एक्टिंग के क्षेत्र में मेहनत करने लगे जिससे परिवार की स्थिती बदल गई और रूपये पैसे की दिक्कत खत्म हो गई।
अपने फिल्मी सफर के अनुभव का जिक्र करते हुए बलराज कहते हैं कि रोल हासिल करने के बजाय कैमरे के सामने आना बेहद कठिन होता था। रिहर्सल के दौरन मझे ऐसा लगता था कि, जैसे मेरे जबङे चमङे की तरह अकङ गये हैं। मेरी आवाज भी इतनी मंद निकल रही थी कि सिर्फ ओठ ही हिलता नजर आ रहा था। जब मैने अपनी फिल्म “जस्टिस” का क्लोजप देखा, तो मुझे लगा कि एक बङा सा पत्थर मेरे सिर पर आ गिरा है। हालांकि मजूमदार की अगली फिल्म, “दूर चलें में” बलराज ने बहुत ही अच्छे से भूमिका निभाई थी। बलराज की फिल्म “हलचल” बेहद सफल रही और इसके बाद संघर्ष का दौर बिलकुल समाप्त हो गया। उनके अभिनय में दिन ब दिन निखार आता गया। “दो बीघा जमीन” के लिये तो वे साधरण डिब्बे में सफर किया ताकि किरदार को अचछे से समझ सकें क्योंकि इस फिल्म में उनका किरदार दूध बेचने वाले का था। दो बीघा जमीन को सुर्खियां मिली और अभिनय के बल पर बलराज की धाक जम गई। 1944 से 1955 के बीच वे बमुश्किल 10 फिल्मों में ही काम किया लेकिन उसके बाद वे लगभग 120 फिल्मों में काम करते नज़र आये और अंत तक सफल अभिनय करते रहे।
बलराज ने अपने जीवन में कई किताबें लिखीं जिसमें 1960 में “मेरा सफरनामा” और 1969 में आई “मेरा रूसी सफरनामा” भी बहुत प्रसिद्ध हुई। बच्चों के लिये कहानी संग्रह गपोङ शंख, कई नाटक जैसे कि, कुर्सी और फिल्म बाजी का स्क्रीन प्ले भी लिखे। उनकी सभी रचनाएं प्रशंसनीय और महत्वपूर्ण हैं। उन्हे लेखक शिरोमणी अवार्ड से सम्मानित भी किया जा चुका है।
बलराज अपने माता पिता को भी बम्बई ले आये और बेटे परीक्षत को मास्को में सिनेमा फोटोग्राफी सीखने के लिये भेज दिया। परीक्षत जिस परिवेश में रह कर आये थे उसकी वजह से उन्हें बम्बई का माहौल रास नही आ रहा था और पिता पुत्र में भी सामंजस्य नही हो पा रहा था। बलराज को इस बात का एहसास हो गया था कि बचपन से बच्चे जिस प्यार और अपनेपन के अधिकारी थे वो उन्हे नही मिल पाया था। इस अभाव का असर उनकी बेटी शबनम पर सबसे ज्यादा पङा। बम्बई यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के बाद शबनम की शादी हो गई थी लेकिन ससुराल का माहौल उसके लिये मौत का सबब बन गया था।
शबनम की मौत से बलराज को बहुत ज्यादा आघात हुआ और अपने आप को बहुत ज्यादा व्यस्त रखने लगे। “गर्म हवा” की शुटिंग के एक सीन में एक बेटी आत्महत्या कर लेती है और उसके पिता के रोल में बलराज साहनी थे। ये किरदार बिना कुछ कहे पिता का दर्द इस तरह बयां कर गया कि ये उनके अभिनय का बेहतरीन सीन था। उस वक्त कम ही लोगों को पता था कि बलराज हकीकत में ये सीन कर चुके हैं। 1973 में बलराज ने अपनी डायरी में दिल के नासूर को इस तरह लिखा था-
हमारी प्यारी शबनम को हमसे सदा के लिये बिछुङें हुए एक साल हो गया। खुद मुझमें .. तो किसी से पूछने की भी हिम्मत नही है कि उसकी मौत किस तारीख को हुई। यह केवल मेरे दिल का अनुमान है कि उसका आज इंतकाल हो गया। 3 नवम्बर को वो इस दुनिया में आई थी और 3 मार्च को इस दुनिया से कूच कर गई।
बलराज की जिंदगी में ऐसा बहुत कुछ था जिसके सहारे वे परिवार के साथ बहुत अच्छी जिंदगी गुजार सकते थे और बच्चों के साथ भी मूल्य आधारित समय गुजार सकते थे लेकिन सच है विधि का लिखा टाला नही जा सकता और फिल्मी जूनून ने उन्हे शौहरत तो खूब दी लेकिन परिवार को वो प्यार नही दे सके जिसका हक हर बच्चे या पत्नी को होता है।
13 अप्रैल 1973 को बलराज अपने नित्य रूटीन के अनुसार समन्दर में तैरने गये हुए थे। समन्दर की किनारे ही उन्होने व्यायाम किया। 13 अप्रैल पंजाबियों के लिये शुभ होता है इस दिन बैसाखी का त्योहार पूरे पंजाब में मनाया जाता है। बलराज व्यायाम करने के बाद स्टूडियो जाने के लिये तैयार थे कि उन्हे सहसा सीने में दर्द उठा उन्हे फौरन नानावती अस्पताल ले जाया गया वहाँ बलराज ने डॉ. को दो पंक्तियां कहीं जिसे डॉ. ने एक कागज पर लिख दिया वो पंक्ति थी कि-
मुझे कोई पछतावा नही है मैने अपनी जिंदगी भरपूर जी है।
इसी के साथ बलराज साहनी की सांसे हमेशा के लिये बंद हो गईं। उनके इंतकाल की खबर सुनकर समूचे मुम्बई के कामगार, मछुआरे, होटल के बैरे और लगभग सभी मजदूर वर्ग उनके अंतिम दर्शन को पहुँच गया। वे रात भर बलराज के नश्वर शरीर की निगरानी कर रहे थे। वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति ऐसा था जिसकी मदद बलराज साहनी ने की थी, चाहे आर्थिक रूप से या अन्य रूप में। हर कोई उनकी दरियादिली का कायल था। वहाँ उपस्थित कामगारों के लिये बलराज रिश्तेदारों से भी बढकर थे। उपस्थित हूजूम बलराज की फिल्मों का प्रशंसक नही था बल्की उनके लिये बलराज साहनी एक शैदाई थे। एक कलाकार कैसा होना चाहिये उसकी जिवंत मिसाल थे बलराज साहनी।
बलराज साहनी ने हर गरीब तबके के जीवन को फिल्मी पर्दे पर जिवंत किया था। उन्होने लगभग 135 फिल्में की थीं जिसमें से कुछ रोल तो बेहद यादगार हैं। गर्म कोट में क्लर्क की भूमिका, दो बीघा ज़मीन में किसान का दर्द, औलाद में घरेलु नौकर की समस्या, काबुलीवाला में पठान का सशक्त किरदार, वक्त में शरणार्थी, एक फूल दो माली में मिल का दौलत मंद मालिक तथा गर्म हवा में मुसलमान व्यापारी का अभिनय सभी पात्र को जिवंत कर देता है।
1969 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। आखिरी शमा में बलराज ने ग़ालिब का रोल अदा किया था। उन दिनो एक अखबार ने बलराज के लिये लिखा था कि-
बलराज साहनी जिसने दिल की पूरी लगन के साथ गरीब और मुसीबत के मारे आम आदमी का रोल अपने लिये चुना है। उस रोल में स्वाभाविक रूप से ढल जाता है।
यही तो बलराज की इंसानी दर्दमंदी उसकी शख्सियत में झलकती है। उनके इसी गुण की वजह से एक बार एक डाकिये ने उनसे कहा कि आप हम लोगों पर फिल्म कब बनायेंगे।
निःसंदेह बलराज साहनी आज भी लाखों लोगों के दिलों पर राज करते हैं। उन्होने अपने अभिनय से दुनिया को नया संस्कार दिया। उनकी जीवन यात्रा दूर क्षितिज तक फैली नजर आती है। इप्टा में सहयोग या बी.बी.सी. पर काम तो गाँधी जी के साथ वर्धा में सादा जीवन और शांति निकेतन में रविन्द्र नाथ टैगोर के सानिध्य में आगे बढना उनकी सम्पूर्णता का प्रतीक है जो उनकी अंतिम पंक्ति को सत्यापित करती है। आज भले ही वह अल्हदा और उम्दा कलाकार हमारे बीच नही है किन्तु उनकी रूह आज भी सिने जगत का गौरव है।