झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई
Jhansi ki Rani Laxmi Bai
समस्त विश्व को वीरता का र्माग दिखाने वाली। शौर्य, तेज, दया, करुणा और देशभक्ती का जज़बा जिसके
रग रग में भरा हुआ था। माँ की मनु, बाजीराव की छबीली, सुभद्रा कुमारी चौहान की खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। हम सब की प्रेरणास्रोत और चहेती रानी लक्ष्मीबाई का जन्म19 नवम्बर , 1835 को काशी में हुआ था।
माता भागीरथी देवी एवं पिता मोरोपंत के श्रेष्ठ संस्कारों से बालिका मनु का मन और ह्रदय विविध प्रकार के उच्च और महान उज्जवल गुणों से सिंचित हुआ था। बचपन में ही माँ से विविध प्रकार की धार्मिक, सांस्कृतिक और शौर्यपूर्ण गाथाएं सुनकर मनु के मन में स्वदेश प्रेम की भावना और वीरता की उच्छल तरंगे हिलोरे लेने लगीं थी। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था।
एक बार बचपन में ही काशी के घाट की सीढीयों पर वो बैठी हुई थी तभी कुछ अंग्रेज उस रास्ते से नीचे उतर रहे थे। मनु को रास्ते से हटने के लिये कहा किन्तु वो वहीं दृणनिश्चयी की तरह बैठी रहीं अंग्रेजों के प्रति उनके मन में रौष बचपन से ही था। अंग्रेज उन्हे बच्ची समझ कर दूसरी तरफ से निकल गये। उन्हे क्या पता था कि ये बच्ची उनके वजूद को मिटाने का दम रखती है।
लगभग पाँच वर्ष की अल्प आयु में ही माँ का साथ छूट गया तद्पश्चात पिता मोरोपंत तांबे जो एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे, मनु को बिठूर ले गये। यहीं पर मनु ने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे, जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाते थे।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
मनु का विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु विधाता ने तो उन्हे किसी खास प्रयोजन से धरती पर भेजा था। पुत्र की खुशी वो ज्यादा दिन तक न मना सकीं दुर्भाग्यवश शिशु तीन माह का होतो होते चल बसा। गंगाधर राव ये आघात सह न सके। लोगों के आग्रह पर उन्होने एक पुत्र गोद लिया जिसका नाम दामोदर राव रक्खा गया। गंगाधर की मृत्यु के पश्चात जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ये कैसे सहन कर सकती थीं। उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूंगी।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
इस तरह सन् सत्तावन में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुवात रानीलक्ष्मी बाई के द्वारा हुई। स्वतंत्रता की ये आग पूरे देश में धधक उठी। रानी ने ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिये युद्ध का शंखनाद किया जिससे अंग्रेजों के पैर उखङने लगे। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। मुन्दर और झलकारी सखियों ने भी साहस के साथ हर पल रानी का साथ दिया था। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए। रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया पर दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका, तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे रानी बुरी तरह से घायल हो गईं, उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। पठान सरदार गौस ख़ाँ अब भी रानी के साथ था। उसका रौद्र रूप देख कर गोरे भाग खड़े हुए। स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया। वे अपने सम्मान के प्रति सदैव सजग रही, उन्होंने यही कामना की कि यदि वे रणभूमि में लड़ते-लड़ते मृत्यु को वरन करें तब भी उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे। अदभुत और अद्मय साहस से अंतिम सांस तक युद्ध करने वाली विरांगना ने अन्त में स्वतंत्रता की बली बेदी पर अपने प्रांण न्यौछावर कर दिये। बाबा गंगादास ने तुरंत कुटिया को ही चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया ताकि अंग्रेज उनको छू भी न सकें। ग्वालियर में आज भी रानी लक्ष्मीबाई की समाधी उनकी गौरवगाथा की याद दिलाती है।
देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी।लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी “सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय” और “विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक” थीं।
ऐसी विरांगना से आज भी राष्ट्र गर्वित एवं पुलकित है।उनकी देश भक्ती की ज्वाला को काल भी बुझा नही सकता। रानी लक्ष्मीबाई को शब्दों में बाँधा नही जा सकता वो तो पुरे विश्व में अद्मय साहस की परिचायक हैं। उनको शब्दो के माध्यम से याद करने का छोटा सा प्रयास है।भावपूर्ण शब्दाजंली से शत् शत् नमन करते हैं।
“रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,”
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।