यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है
Yu chmpai rangat pa sindur nikhar hai
यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है
इंसानी पैरहन में गुले-हरसिंगार है।
धानी से दुपट्टे में बसंती सी हलचलें
मौज़े-ख़िरामे-हुस्न कि फ़स्ले-बहार है।
गुजरा है कारवाने-क़ायनात इधर से
ये कहकशाँ की धुन्ध भी मिस्ले-गुबार है।
पापोश के बगैर वो गुजरा है इधर से
रस्ते के धूलकन में अभी तक ख़ुमार है।
जिस पर भी पड़ गयी है निगहे-नाज़े-सरसरी
इंसाँ नियाजे-हुस्न का उम्मीदवार है।
आतिश जले कहीं भी पहुँचते हैं फ़ित्रतन
दीवावगी का अहद भी परवानावार है।
क्यूँ हुस्न प लगती रही पाक़ीज़गी की शर्त
पूछा कभी कि इश्क़ भी परहेजगार है।
इतने क़रीब से भी न गुजरे कोई ’अमित’
गो आग बुझ भी जाय प रहता शरार है।