ग़मों के नूर में लफ़्जों को ढालने निकले -अखिलेश तिवारी
Gamo ke noor lafzo ko dhalne nikle -Akhilesh Tiwari
ग़मों के नूर में लफ़्जों को ढालने निकले
गुहरशनास समंदर खंगालने निकले
खुली फ़िज़ाओं के आदी हैं ख़्वाब के पंछी
इन्हें क़फ़स में कहाँ आप पालने निकले
सफ़र है दूर का और बेचराग़ दीवाने
तेरे ही ज़िक्र से रातें उजालने निकले
शराबखानो कभी महफ़िलों की जानिब हम
ख़ुद अपने आप से टकराव टालने निकले
सियाह शब ने नई साज़िशें रची शायद
हवा के हाथ कहाँ ख़ाक डालने निकले