एक मासूम से ख़त पर बवाल कितना था
Ek masum se khat par baval kitna tha
एक मासूम से ख़त पर बवाल कितना था
उस हिमाकत का मुझे भी मलाल कितना था
मेरे हाथों पे उतर आई थी रंगत उसकी
सुर्ख़ चेहरे पे हया का गुलाल कितना था
मैं अगर हद से गुजर जाता तो मुज़रिम कहते
और बग़ावत का भी दिल में उबाल कितना था
काँच सा टूट गया कुछ मगर झनक न हुई
जुनूँ में भी हमें सबका ख़याल कितना था
हश्र यूँ मेरे सिवा जानता था हर कोई
मैं अपने हाल पे ख़ुद ही निहाल कितना था
यूँ तो पूनम की चमक थी अगर्चे खिड़की से
झलक सा जाता मुक़द्दस हिलाल कितना था
आज भी एक पहेली है मेरे सिम्त ’अमित’
उस तबस्सुम की गिरह में सवाल कितना था