किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय
Kisi ko itna na chaho ke badguma ho jaye
किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय
न लौ को इतना बढ़ाओ के वो धुआँ हो जाय
ग़र हो परवाज़ पे पहरा ज़ुबाँ पे पाबन्दी
तो फिर क़फ़स ही मेरा क्यों न आशियाँ हो जाय
न चुप ही गुज़रे न रोकर शबे-फ़िराक़ कटे
तू एक झलक दिखा कर जो बेनिशाँ हो जाय
लोग लेते हैं मेरा नाम तेरे नाम के साथ
कल ये अफ़वाह ही बढ़ कर न दास्ताँ हो जाय
ख़ुशमिज़ाजी भी तेरी मुझको डरा देती है
तेरा मज़ाक रहे, मेरा इम्तेहाँ हो जाय
सितमशियार कई और हैं तुम्हारे सिवा
कहीं न दर्द मेरा, दर्दे-ज़ाविदाँ हो जाय
भीख में इश्क़ भी मुझको नहीं कुबूल ‘अमित’
भले वो जाने-सुकूँ मुझसे सरगिराँ हो जाय