महाकाल
Mahakal
महाकाल सृष्टि का नौवां महीना है, छत्तीसवाँ महीना
मेरे भीतर कुछ चल रहा है
षड़यंत्र नहीं, तंत्र-मंत्र नहीं,
लेकिन चल रहा है लगातार!
बढ़ रहा है भीतर-भीतर
जैसे बढती है नदी सब मुहानों के पार!
घर नहीं, दीवार नहीं और छत भी नहीं
लेकिन कुछ ढह रहा है भीतर:
जैसे नयी ईंट की धमक से
मानो ख़ुशी में
भहर जाता है खँडहर!
देखो, यहाँ … बिलकुल यहाँ
नाभि के बीचो बीच
उठते और गिरते हथौड़ों के नीचे
लगातार जैसे कुछ ढल रहा है
लोहे के एक पिंड सा
थोडा-सा ठोस और थोड़ा तरल
कुछ नया और कुछ एकदम प्राचीन
पल रहा है मेरे भीतर,
मेरे भीतर कुछ चल रहा है
दो-दो दिल धड़क रहें हैं मुझमें,
चार-चार आँखों से
कर रही हूँ आँखें चार मैं
महाकाल से!
थरथरा उठें हैं मेरे आवेग से सब पर्वत,
ठेल दिया है उनको पैरों से
एक तरफ मैंने!
मेरी उसांसों से काँप-काँप उठतें हैं जंगल!
इन्द्रधनुष के सात रंगों से
है यह बिछौना सौना-मौना!
जन्म ले रहा है एक नया पुरुष
मेरे पातालों से
नया पुरुष जो कि अतिपुरुष नहीं होगा
क्रोध और कामना की अतिरेकी पेचिस से पीड़ित,
स्वस्थ होगी धमनियाँ उसकी
और दृष्टि सम्यक
अतिरेकी पुरुषों की भाषा नहीं बोलेगा
स्नेह-सम्मान-विरत चूमा- चाटी वाली भाषा,
बन्दूक-बम-थप्पड़-घुडकी- लाठी वाली भाषा ,
मेरे इन उन्नत पहाड़ों से
फूटेगी जब दुधैली रौशनी
यह पिएगा!
अँधियारा इस जग का
अंजन बन इसकी आँखों में सजेगा,
झूलेगी अब पूरी कायनात झूले-सी
फिर धीरे-धीरे खड़ा होगा नया पुरुष
प्रज्ञा से शासित संबुद्ध अनुकूलित,
प्रज्ञा का प्यारा भरतार,
प्रज्ञा को सोती हुई छोड़कर जंगल
इस बार लेकिन नहीं जाएगा |