ओढ़नी
Odhani
मैट्रिक के इम्तिहान के बाद
सीखी थी दुल्हन ने फुलकारी!
दहेज की चादरों पर
माँ ने कढ़वाये थे
तरह-तरह के बेल-बूटे,
तकिए के खोलों पर ‘गुडलक’ कढ़वाया था!
कौन माँ नहीं जानती, जी, ज़रूरत
दुनिया में ‘गुडलक’ की!
और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक थी ओढ़नी-
लाल ओढ़नी फूलदार!
और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक ख़तम कहानी!
दुल्हन की कटी-फटी पेशानी
और ओढ़नी ख़ूनम-ख़ून!
अपने वजूद की माटी से
धोती थी रोज इसे दुल्हन
और गोदी में बिछा कर सुखाती थी
सोचती सी यह चुपचाप
तार-तार इस ओढ़नी से
क्या वह कभी पोंछ पाएगी
खूंखार चेहरों की खूंखारिता
और मैल दिलों का?
घर का न घाट का
उसका दुपट्टा
लहराता था आसमानों पर
‘गगन में गैब निसान उडै़’ की धुन पर
आहिस्ता-आहिस्ता!