गजरे का एक फूल
Gajre ka ek Phool
पूजा की माला में कैसे तो गुँथ गया
एक फूल गजरे का
अर्चना के बोलों से आ जुडी
मुजरे की एक कड़ी।
गंगा के बीच नहीं
छिछले तालाब में उतरती हैं
मन्दिर की सीढियाँ,
फूल नहीं, दीप नहीं
उनसे टकराती हैं
पानों की पीक और बीड़ियाँ।
सामने दुकानें हैं, होटल हैं, बार हैं
जहाँ रोज़ मरती है कोई मोनालिसा
फ्रेम में जड़ी-जड़ी।
रेशम के तार और मकड़ी के जाले
कटते हैं साथ-साथ
पार्क में टहलते हैं रूप और पशु दोनों
हाथों में दिए हाथ
कमरों में चलते रोमांस
और बच्चों के वास्ते सडकें हैं बड़ी-बड़ी!
नील अंधियार में जुगनू के सर्प चलते हैं
फैशन की तरह लोग घर बदलते हैं
एक सी मशीनों में
भाषण भी, श्लोक भी, नारे भी ढलते हैं।
सरल नहीं ख़ुद को पहचानना
सहज नहीं धर्म और ईश्वर के अंतर को जानना
सम्भव अब नहीं रहा
अलग-अलग चीज़ों को अलग-अलग मानना
दूर बड़ी दूर कहीं ज़िंदगी निकल आई
देती आवाज़ रही चेतना खड़ी-खड़ी।