पाँच मुक्तक
Panch Muktak
मेरा विश्वास पराजय को ज़हर होता है
मेरा उल्लास उदासी को क़हर होता है
मुझे घिरते हुए अँधियारे की परवाह क्या
मेरी हर बात का अंजाम सहर होता है
आज बदली है ज़माने ने नई ही करवट
नई धरा ने विचारों का छुआ है युग तट
तुम जिसे मौत की आवाज़ समझ बैठे हो
नए इनसान के क़दमों की है बढ़ती आहट
इन चमकदार कतारों पे नज़र रखती हूँ
सुर्ख़ बेदाग अँगारों पे नज़र रखती हूँ
दे के मिट्टी के खिलौने मुझे बहकाओ न तुम
मैं जवानी हूँ सितारों पे नज़र रखती हूँ
दूर तक एक भी आता है मुसाफ़िर न नज़र
ये भी मालूम नहीं रात है ये या के सहर
मेरे अस्तित्व के बस दो ही चिह्न बाक़ी हैं
एक बुझता-सा दिया, एक उजड़ती-सी नज़र
जिसके जीने से जी रहे थे हम
दर्द का दम निकल गया शायद
एक मुद्दत में नींद आई है
मौत का दिल पिघल गया शायद