Hindi Poem of Bhagwati Charan Verma “  Sankoch bhar ko sah na saka“ , “संकोच-भार को सह न सका” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

संकोच-भार को सह न सका

 Sankoch bhar ko sah na saka

 

संकोच-भार को सह न सका

पुलकित प्राणों का कोमल स्वर

कह गये मौन असफलताओं को

प्रिय आज काँपते हुए अधर।

छिप सकी हृदय की आग कहीं?

छिप सका प्यार का पागलपन?

तुम व्यर्थ लाज की सीमा में

हो बाँध रही प्यासा जीवन।

तुम करूणा की जयमाल बनो,

मैं बनूँ विजय का आलिंगन

हम मदमातों की दुनिया में,

बस एक प्रेम का हो बन्धन।

आकुल नयनों में छलक पड़ा

जिस उत्सुकता का चंचल जल

कम्पन बन कर कह गई वही

तन्मयता की बेसुध हलचल।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं

मधु की मादकता को छूकर

वह देखो अरुण कपोलों पर

अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो

अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल

तुम मुझ में अपनी छवि देखो,

मैं तुममें निज साधना अचल।

पल-भर की इस मधु-बेला को

युग में परिवर्तित तुम कर दो

अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,

मेरे प्राणों में तुम भर दो।

तुम एक अमर सन्देश बनो,

मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ

तुम कौतूहल-सी मुसका दो,

जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो

तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ

बहना है, बस बह चलो, अरे

है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो

तुम प्रेम-लोक की रानी हो

जीवन के मौन रहस्यों की

तुम सुलझी हुई कहानी हो।

तुममें लय होने को उत्सुक

अभिलाषा उर में ठहरी है

बोलो ना, मेरे गायन की

तुममें ही तो स्वर-लहरी है।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक

नयनों में कुछ-कुछ पानी हो

फिर धीरे से इतना कह दो

तुम मेरी ही दीवानी हो।

 

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