जैसे याद आ जाता है
Jese yaad aa jata he
सामने पड़ जाने पर
और नाम उसका याद नहीं आता
या जैसे एकाध- बार
जाने – पहचाने से लगते हैं वे
जिनसे कभी नहीं मिले
पाने और खोने के
कोने ही कोने वैसे आज गड़ते हैं
कभी आँख में कभी मन में
कभी पीठ पर
हाथ कुछ नहीं लगता
न नाम न रूप
अस्तित्व का आँगन
कृतज्ञता की धूप से भरा है
और तिस पर भी
सूना है विस्तार
देहरी से ठाकुरद्वारे तक का
पाने और खोने के
कोने ही कोने गड़ते हैं
पीठ में
मन में दीठ में