धूप के नखरे बढ़े
Dhup ke nakhre badhe
शीत की अंगनाइयों में
धूप के नखरे बढ़े
बीच घुटनों के धरे सिर
पत्तियों के ओढ़ सपने
नीम की छाया छितरकर
कटकटाती दाँत अपने
गोल कंदुक के हरे फल
छपरियों पर जा चढ़े
फूल पीले कनेरों के
पेड़ के नीचे झरे तो
तालियों में बज रहें हैं
बेल के पत्ते हरे जो
एक मंदिर गर्भ गृह में
मूर्तियाँ मन की गढ़े
बहुत छोटे दिन
लिहाफों में बड़ी रातें छिपाकर
भागते हैं क्षिप्र गति में
अँधेरों में कहीं जाकर
शाम के दो जाम
ओठों पर चढ़े
शीशे मढ़े