दिन घटेंगे
Din ghatenge
जनम के सिरजे हुए दुख
उम्र बन-बनकर कटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे
कुआँ अन्धा बिना पानी
घूमती यादें पुरानी
प्यास का होना वसन्ती
तितलियों से छेड़खानी
झरे फूलों से पहाड़े —
गन्ध के कब तक रटेंगे?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे
चढ़ गए सारे नसेड़ी
वक़्त की मीनार टेढ़ी
‘गिर रही है — गिर रही है’ —
हवाओं ने तान छेड़ी
मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न
लाशों से पटेंगे?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे
परिन्दे फिर भी चमन में
खेत-बागों में कि वन में
चहचहाएँगे
नदी बहती रहेगी उसी धुन में
चप्पुओं के स्वर लहर बनकर
कछारों तक उठेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे