Hindi Poem of Divik Ramesh “Sharam aati he ki”,”शर्म आती है कि…” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

शर्म आती है कि…

 Sharam aati he ki

जितना जाना है तुम्हारे बारे में

कि पढ़ा है जितना धर्म-ग्रंथों में

वह तो इज़ाजत नहीं देता तुम्हें कि दिखो ऐसे

जैसे दिखे 2011 के ढहते-चरमराते जापान में।

तुम इंसान तो नहीं ही कहे गए हो न

कि मान लूं कोई क्रूर आतंकवादी हो तुम,

ज़ालिम और स्वार्थी

कि प्रार्थनाओं के बावजूद नहीं पसीजता जिनका दिल।

मैं खारिज़ करता हूं उठाकर हाथ ऊपर

इस कहे को कि भय बिनु होय न प्रीति

जो जुमला है महज सत्ता भोगियों का|

और कैसे मान लूं न्याय भी जब सुनवाई का विधान ही हो गायब।

इंसानों की दुनिया में तो धौंस होती है यह, महज धौंस

और अक्सर डरे हुए इंसानों का हथियार होता है यह कहा

जिन्हें न खुद पर विश्वास होता है और न प्रार्थनाओं पर

बस होती है तो एक बौखलाहट

चूल से डिगे-डगमगाते अपने अस्तित्व की।

पर तुम्हें तो इंसान नहीं ही कहा गया है न!

भूल भी तो नहीं कह सकता इसे तुम्हारी

न ही हादसा।

न भूल होती है बार-बार

न हादसे ही।

सुनी हैं, पढ़ी भी हैं तुम्हारे रुतबों की कहानियां

पाप पर पुण्य की विजय को ही बताया गया है न

मचाई गई तबाहियों का अर्थ।

पर जहां होता ही नहीं प्रश्न तक पाप या पुण्य का

वहां?

देखिए

कम से कम ‘आपसे’ नहीं है अपेक्षा कुतर्क की

आपके नुमाइंदों की सी।

कृपया रहने ही दीजिए यह पिछले-अगले जन्म की बात

कुतर्क के दायरों में ही।

क्षमाप्रार्थी हूं।

डिगने लगा हूं मैं।

कब तक बने रहना चाहोगे कमजोरी

कब तक बनाए रखना चाहोगे कमजोर, इंसानों को

कब तक दिखाते रहोगे भय मौत का

लंगड़ी-लूली ज़िन्दगी का–

कब तक?

सच तो यह है

कि शर्म आई थी मुझे कि भक्त हूं मैं ऐसे ईश्वर का!

जैसे शर्म आती हे मुझे घोटालों पर घोटाले देखकर

अपने देश में

कि प्रजा हूं मैं ऐसी सत्ता का।

कि जहां चुल्लू भर पानी के लिए भी

देनी पड़ती है रिश्वत

या बैठानी होती है जुगाड़ सिफारिश की।

आई थी, खूब आई थी शर्म मुझे ईश्वर

कि भक्त हूं मैं ऐसे ईश्वर का

क्योंकि मान नहीं पाया हूं इंसान तुम्हें

अभी तक

इस धरती का।

और शायद यही बचाव भी है तुम्हारा अब तक।

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