Hindi Poem of Jagdish Gupt “ Saanjh 1”,”साँझ-1” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

साँझ-1

 Saanjh 1

 

जिस दिन से संज्ञा आई

छा गयी उदासी मन में

ऊषा के दृग खुलते ही

हो गयी सांझ जीवन में।।१।।

मुँह उतर गया है दिन का

तरूआें में बेहोशी है

चाहे जितना रंग लाये

फिर भी प्रदोष दोषी है ।।२।।

रिव के श्रीहीन दृगों में

जब लगी उदासी घिरने

संध्या ने तम केशों में

गूँथी चुन कर कुछ किरने।।३।।

जलदों के जल से मिल कर

फिर फैल गये रंग सारे

व्याकुल है प्रकृति चितेरी

पट कितनी बार संवारे।।४।।

किरनों के डोरे टूटे

तम में समीर भटका है।

जाने कैसे अम्बर में,

यह जलद-पटल अटका है।।५।।

रिश्मयाँ जलद से उलझीं,

तिमराभ हुई अरूणाई।

पावस की साँझ रंगीली,

गीली-गीली अलसाई।।६।।

अधरों की अरूणाई से,

मेरी हर साँस सनी है

उन नयनों की श्यामलता,

जीवन में तिमर बनी है।।७।।

आँसू की कुछ बँूदों में,

सारा जीवन सीमित है।

पलकों का उठना-गिरना,

मेरे सुख की अथ-इति है।।८।।

प्रतिकूल हुये जब तुम ही,

तब कूल कहाँ से पाऊँ,

सुधि की अधीर लहरों में,

कब तक डुबँू-उतराऊँ।।९।।

उस दिन तुमने हाँ कहकर,

निश्छल विश्वास दिलाया।

अब कितने अब्द बिताऊँ,

ले एक शब्द की माया।।१०।।

बुझ सकी न प्यास हृदय की,

अधरों की मधुराई से।

कुछ माँग रही है जैसे,

तरूणाई तरूणाई से।।११।।

तुम हो कि सतत नीरव हो,

संध्या की कमल-कली से।

गुंजन भी छीन लिया है,

बंदी मधु-मुग्ध अली से।।१२।।

इस विस्तृत कोलाहल में,

मैं पूछ रहा अपने से।

वे सत्य हृदय के सारे,

क्यों आज हुये सपने से।।१३।।

क्या उस सम्पूणर् सृजन की,

निमर्म पिरपूतिर् व्यथा थी।

जो कुछ देखा सपना था,

जो कुछ भी सुना कथा थी।।१४।।

वीथियाँ विकल बिलखातीं,

बलखाती बहती धारा।

अब भी मेरे मानस में,

बसता प्रतिबम्ब तुम्हारा।।१५।।

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