कबीर’ माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि -कबीर
Kabir maya papni, fandh le bethi hati -Kabir ke dohe
कबीर’ माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥1॥
भावार्थ – यह पापिन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी है । बहुत सारों पर फंन्दा डाल दिया है इसने ।पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया हरि
भक्त पर फंन्दा डालनेवाली माया खुद ही फँस जाती है, और वह सहज ही उसे काट कर निकल आता है ।]
`कबीर’ माया मोहनी, जैसी मीठी खांड ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड ॥2॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -यह मोहिनी माया शक्कर-सी स्वाद में मीठी लगती है, मुझ पर भी यह मोहिनी डाल देती पर न डाल सकी । सतगुरु की कृपा ने बचा लिया, नहीं
तो यह मुझे भांड़ बना-कर छोड़ती । जहाँ-तहाँ चाहे जिसकी चाटुकारी मैं करता फिरता ।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया `कबीर’ ॥3॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं –न तो यह माया मरी और न मन ही मरा, शरीर ही बार-बार गिरते चले गये ।मैं हाथ उठाकर कहता हूँ । न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा
का ही ।
`कबीर’ सो धन संचिये, जो आगैं कूं होइ ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥4॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं,–उसी धन का संचय करो न, जो आगे काम दे । तुम्हारे इस धन में क्या रखा है ? गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आजतक ले जाते नहीं देखा
।
त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥5॥
भावार्थ – कैसी आग है यह तृष्णा की !ज्यौं-ज्यौं इसपर पानी डालो, बढ़ती ही जाती है ।
जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला तो जाता है, पर मरता नहीं, फिर हरा हो जाता है ।
कबीर जग की को कहै, भौजलि, बुड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करैं मानि की आस ॥6॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं– दुनिया के लोगों की बात कौन कहे, भगवान के भक्त भी भवसागर में डूब जाते हैं । इसीलिए परब्रह्म स्वामी को छोड़कर वे दूसरों से मान-सम्मान
पाने की आशा करते हैं।
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजी नहीं जाइ ।
मानि बड़े मुनियर गिले, मानि सबनि को खाइ ॥7॥
भावार्थ – क्या हुआ जो माया को छोड़ दिया, मान-प्रतिष्ठा तो छोड़ी नहीं जा रही । बड़े-बड़े मुनियों को भी यह मान-सम्मान सहज ही निगल गया । यह सबको चबा जाता है,
कोई इससे बचा नहीं ।
`कबीर’ इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि घरि जिता बधावणा, तिहिं घरि तिता अंदोह ॥8॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं — झूठा है संसार का सारा माया और मोह । सनातन नियम यह है कि – जिस घर में जितनी ही बधाइयाँ बजती हैं, उतनी ही विपदाएँ वहाँ आती हैं
।
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ्या कलंक ।
और पखेरू पी गये , हंस न बोवे चंच ॥9॥
भावार्थ – बगुली ने चोंच डुबोकर सागर का पानी जूठा कर डाला ! सागर सारा ही कलंकित हो गया उससे ।और दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गये, पर हंस ही ऐसा था,
जिसने अपनी चोंच उसमें नहीं डुबोई ।
`कबीर’ माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह ।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह ॥10॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाये, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं । जबकि नारद-सरीखे मुनिवरों को
यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या ?