दुःखी मत हो
Dukhi mat ho
सार्त्र!
तुम्हें आदमी के
अस्तित्व की चिंता है न?
दुःखी मत हो दार्शनिक
मैं तुम्हें सुझाता हूँ
क्षणों को
पूरे आत्मबोध के साथ
जीते हुए
आदमज़ाद की
सही तस्वीर दिखाता हूँ-
भागती ट्रामों
दौड़ती कारों
और हाँफती ज़िन्दगी के किनारे
वहाँ दूर
नगर निगम के पार्क में –
प्राणवान अँगुलियों के सहारे
बेमतलब घास चुनते
अपने मौन से
अनन्त सर्गों का
संवेदनशील महाकाव्य बुनते
यदि दो युवा प्रेमियों को
तुम कभी देख पाओगे
तो उसी दिन से
ओ चिन्तक!
महायुद्धों की
विभीषिका को भूलकर
तुम सचमुच
आदमज़ाद के
समग्र अस्तित्व की
महत्ता पहचान जाओगे।